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पौराणिक कथा के अनुसार जब देवी सती ने दक्ष यज्ञ में अपना देह त्याग दिया तो भगवान शिव उनको लेकर पृथ्वी पर घूमने लगे. शिव को मोह में देख, मोहमुक्त करने के लिए भगवान विष्णु ने अपने चक्र से उनका देह काट दिया जिसके 51 टुकड़े पूरे भारत में जगह जगह गिरे. असम के नीलांचल पहाड़ी पर सती की योनि गिरी, उस योनि को ही देवी कामाख्या कहा जाता है. योनी द्वार है जहां से बच्चा इस दुनिया में प्रवेश करता है. योनि को सृष्टि की उत्पत्ति का कारण माना जाता है. यहाँ प्रकृति रूप में देवी ब्रह्म योनि हैं. पुरुष के लिए योनि सदैव से रहस्यमय चीज है इसलिए सभी धर्मों के केंद्र में योनि और लिंग हैं. यहाँ शक्ति अर्थात योनि आद्य-शक्ति महाभैरवी कामाख्या हैं और लिंग अर्थात शिव/भैरव उमानंद कहे जाते हैं. भैरव मन्दिर गुवाहाटी शहर के निकट ब्रह्मपुत्र ‘नद’ के मध्य भाग में टापू के ऊपर स्थित है. यह एक प्राकृतिक शैलदीप है जो कूर्माकार है इसलिए तंत्र का सर्वोच्च सिद्ध शक्तिपीठ है. विंध्यांचल भी कूर्माकार भूमि खंड पर स्थित है और इसलिए यह बेहद शक्तिशाली शक्तिपीठ है. यहाँ योनिपीठ न होने से यहाँ कामाख्या की तरह रहस्यवाद नहीं है.

कामाख्या क्यों सर्वोच्च शक्ति पीठ है ?

कामाख्या का अर्थ है काम ही जिसकी आख्या है अर्थात जो “काम” ही हैं, “काम” द्वारा ही जिनका वर्णन किया जा सकता है. यहाँ अम्बूवाची का पर्व बड़ा उत्सव होता है. यह अम्बूवाची पर्व भगवती (सती) के रजस्वला होने पर मनाया जाता है. पौराणिक शास्त्रों के अनुसार सतयुग में यह पर्व 16 वर्ष में एक बार, द्वापर में 12 वर्ष में एक बार, त्रेता युग में 7 वर्ष में एक बार तथा कलिकाल में प्रत्येक वर्ष जून माह (आषाढ़) में तिथि के अनुसार मनाया जाता है. प्रचलित मान्यता के अनुसार देवी कामाख्या मासिक धर्म चक्र के माध्यम से तीन दिनों के लिए गुजरती है, इन तीन दिनों के दौरान, कामाख्या मंदिर के द्वार श्रद्धालुओं के लिए बंद कर दिए जाते हैं. अम्बूवाची पर्व के दौरान गर्भ गृह स्थित महामुद्रा (योनि-तीर्थ) से निरंतर तीन दिनों तक जल-प्रवाह के स्थान से रक्त प्रवाहित होता है. अम्बूवाची पर्व के दौरान कामाख्या का दर्शन भी निषेध हो जाता है.


कामाख्या देवी एक शिला में बनी हुई हैं. शिला में रजस्वला होने का कोई कारण नहीं है, परन्तु मान्यता है इसलिए लाल रक्त जैसा कपड़ा वहां से निकाला जाता है और प्रसाद के रूप बांटा जाता है. कोई स्त्री एक कुंटल रक्त मासिक धर्म में उत्पन्न नहीं कर सकती. प्राचीन समय से चली आ रही धर्म भावना को बनाये रखने के लिए यह रिचुअल हर वर्ष किया जाता है. गुह्येंद्रिय की स्थिति होने के कारण यह स्थान प्राचीन काल से तन्त्र का स्थान रहा हैं.

फिर रजस्वला होने का रहस्य क्या है?

वास्तव में यह एक ज्योतिषीय रहस्य है. सूर्य की मिथुन संक्रांति में जब उसका आर्द्रा प्रवेश होता है तब अम्बूवाची  का पर्व मनाया जाता है. आर्द्रा प्रवेश के साथ ही पृथ्वी पर वर्षा ऋतू का आगाज हो जाता है. वर्षा ऋतू के आगाज होने के कारण पृथ्वी को रजस्वला कहा जाता है. पृथ्वी आर्द्र हो जाती है. इस वर्ष २०२३ में 22 जून को अम्बुबाची पर्व  का प्रारंम्भ हुआ था क्योंकि इसी दिन सूर्य का आर्द्रा प्रवेश हुआ. अम्बुबाची में अम्बु का अर्थ जल ही है. हर वर्ष ऐसे ही रजस्वला होती हैं देवी. देवी को प्रकृति- पृथ्वी (भूदेवी) का प्रतीक माना जाता है जो सबकी जननी, सबको धारण करने वाली हैं, जो उर्वरा हैं.  यहाँ सूर्य शिव हैं जिनके आर्द्रा प्रवेश से शिव-शक्ति में कामना का बीज उद्भूत होता है, शक्ति कामना से रजस्वला होती हैं. आर्द्रा प्रवेश के साथ ही एक नवजीवन का संचार होता है, गर्मी से उत्तप्त पृथ्वी को पुनर्जीवन मिलता है. इसी नक्षत्र में सूर्य के प्रविष्ट होने पर सृष्टि जब रजस्वला होती है तो आगे पुनर्वसु में नये जीवन का बीज पड़ता है. यह देवों की माता आदिति द्वारा शासित है. माता आदिती आद्य माता हैं. जब रूद्र रूप सूर्य देवता आर्द्रा प्रवेश करते हैं तो एकादश रुद्रों में भी कामना का उद्रेक होता है.

यजुर्वेद के अनुसार यहीं देवताओं ने कामना की कि हम ज्यादा पशुमान हो जायें. यह आर्द्रा प्रवेश husbandry or farming से भी जुड़ा हुआ है. हसबैंड husbandry से ही तो आया न, हसबैंड रजस्वला होने पर ही बीज का आधान करता है. रजस्वला स्त्री को थोडा कष्ट और पीड़ा होती है लेकिन सर्जना का बीज तो कष्ट और पीड़ा में ही पड़ता है. कष्ट और तप से ही ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की थी ‘तपसा चीयते ब्रह्म’. आर्द्रा प्रवेश के बाद ही किसान भी धान का बीज डालते हैं और आदरा का उत्सव मनाते हैं. अच्छे पकवान बनाकर देवताओं को भोग लगाते हैं, ब्राह्मण को भोजन कराते हैं.

शेष तन्त्र की कथा और रहस्यवाद अलग है परन्तु उस रहस्यवाद के मूल में भी यही रहस्य है. उसपर फिर कभी चर्चा की जाएगी.