
जैसे रेशम का कीड़ा
बुनता है अपना घर
सप्रेम अपनी ही मज्जा से
और मर जाता है
अपनी देह से लिपटे
वैसे मैं जलती हूँ
अपनी देह की इच्छा में
चीर डालो, ओ प्रभु
कामना से भरा मेरा हृदय
चिंगारी उड़ेगी अगर
तो समझ लूँगी
मिट गई है मेरी भूख-प्यास
फटेगा अगर आसमान
समझ लूँगी
मेरे नहाने को है बह आया
फिसल पड़ेगी अगर पहाड़ी मुझ पर
समझ लूँगी
मेरे बालों का फूल है वह
जिस दिन गिरेगा मेरा सिर
कंधों से छिटक कर
समझूँगी तुम्हारी भेंट चढ़ा,
ओ मल्लिकार्जुन!
-अक्का महादेवी कन्नड़ भक्त कवित्री
-अनुवाद द्वारा कवित्री गगन गिल