गणेश और शनि की कथा भी काफी रोचक है. पुराणवादी मानते हैं कि शनि देवताओं पर भी भारी रहता है, शनि की दृष्टि से देवता भी नहीं बचते. ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार देवी पार्वती ने पुत्र प्राप्ति की इच्छा से ‘पुण्यक’ नामक ’ व्रत किया था. जिसके प्रभाव स्वरूप उन्हें गणेश जी पुत्र के रूप में प्राप्त हुए थे.
महादेव के घर पुत्र का जन्म हुआ था इसलिए सभी देवी, देवता, ऋषि, गंधर्व आदि शिव पुत्र के दर्शन के लिए आतुर थे. सभी देवी और देवता बारी बारी गणेश जी को देखने और बधाई देने के लिए कैलाश पर्वत पर पहुंच रहे थे. सभी नौग्रह भी पार्वती नंदन को देखे पहुंचे. सब ग्रहों ने गणेश को देखा, उपहार दिए और आशीर्वाद देकर एक एक कर विदा होते रहे. मगर, शनिदेव एकतरफ खड़े रहे, उन्होंने न तो बालक गणेश को देखा और न ही उनके पास गए. जिस पर देवी पार्वती ने शनिदेव को टोका “सभी मेरे पुत्र को देख रहे, आप सिर नीचे किये दूर क्यों खड़े हैं ?”. शनि देव ने माता पार्वती को बताया कि उनकी पत्नी ने श्राप दिया था कि वे जिसे भी अपनी दृष्टि से देखेंगे, उसका अनिष्ट हो जाएगा, वह महान संकट में घिर जाएगा
माता पार्वती ने शनि देव से कहा ‘सब कर्मानुसार होता है’, आप निश्चिंत होकर गणेश को देख लीजिये. शनिदेव ने धर्म को साक्षी मानकर बालक को तो देखने का विचार किया पर बालक की माता को नहीं. उन्होंने अपने बाएं नेत्र के कोने से शिशु के मुख की ओर निहारा. शनि की दृष्टि पड़ते ही शिशु का मस्तक धड़ से अलग हो गया. माता पार्वती अपने बालक की यह दशा देख मूर्छित हो गईं. यह देख सभी देवता बड़े चिंतित हुए. महादेव को भी कुछ नहीं सूझ रहा था.
देवी पार्वती को पुत्र की मृत्यु के आघात से बाहर निकालने के लिए श्री हरि विष्णु अपने वाहन गरुड़ पर सवार होकर बालक के लिए सिर की खोज में निकल पड़े और आख़िर में अपने सुदर्शन चक्र से एक हाथी का सिर काट कर कैलाश पहुंचे. और देवी पार्वती के पास जाकर भगवान विष्णु ने हाथी के मस्तक को बालक के धड़ से जोड़ दिया तथा शिव ने उसमे पुन: प्राण का संचार कर दिया. इस तरह गणेश गजानन हो गये.

