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सनातन हिन्दू धर्म में पंचदेवोपासना की जाती है. हिन्दू धर्म में पांच वैदिक देवताओं विष्णु, शिव, गणेश, देवी और सूर्य से सम्बन्धित सम्प्रदाय ही प्रमुख हैं और इन्हीं के अनुयायी सारे हिन्दू हैं. यदि देखें तो सारे भारत में स्मार्त हिन्दू घरों में पंच देवों की पूजा करते हैं. लेकिन आदि शंकराचार्य के चतुराम्नाय विभाजन को देखें तो भारत के चार इलाके पूर्वी भारत, पश्चिमी भारत, दक्षिण भारत, उत्तर भारत में किसी सम्प्रदाय विशेष का प्रभाव दिखता है. यदि पूर्वोत्तर भारत को देखें पश्चिम बंगाल, असम, बिहार इत्यादि तो यहाँ वैष्णव प्रभाव बहुत कम है, यहाँ शाक्त प्रभाव ज्यादा हैं. यहाँ शक्ति के विभिन्न रूपों की उपासना शिव के साथ की जाती है लेकिन शिव गौड़ हैं शक्ति प्रमुख हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश से प्रारम्भ कर पूरा व्रज, हरिद्वार, आधा मध्यप्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात तक पर ज्यादा वैष्णव धर्म का प्रभाव है. उसी प्रकार उत्तरी भारत के पहाड़ी क्षेत्र में शक्ति और शिव की उपासना की ही प्रधानता है. दक्षिण भारत में भी शिव-शक्ति दोनों की प्रधानता है लेकिन राज्यवार कहीं वैष्णव मत भी काफी प्रभावी हैं. महाराष्ट्र और दक्षिण में भी गणपति की उपासना काफी होती है.

सूर्य के पहले बहुत सम्प्रदाय थे जिसका साक्ष्य कोणार्क जैसे भव्य मन्दिर हैं. सूर्य का सम्प्रदाय किसी समय में बहुत विकसित था, सूर्य मन्दिर पुरे भारत में मिलते हैं.  इस तरह पुरे भारत को देखें तो ये पांच देव ही प्रमुख हैं. इन पांच देवों के परिवार के सदस्यों के भी सम्प्रदाय बने. शक्ति परिवार के कार्तिकेय का बृहद सम्प्रदाय दक्षिण भारत में विकसित हुआ. वैष्णव धर्म के अवतारों के सम्प्रदाय अलग अलग विकसित हुए और यह सम्प्रदाय बहुत बृहद हो गया. वैष्णवों में भगवान नृसिंह की उपासना भी काफी प्रभावी रही है और इसके सम्प्रदाय हैं.

इन पंच देवों में शक्ति की उपासना सबसे प्रभावी है. यदि देखें तो विष्णु, शिव, गणेश और सूर्य के सम्प्रदाय भी मूलभूत रूप से शक्ति के ही उपासक हैं. वैष्णवों में कृष्णमार्गी वैष्णवों को लें तो कृष्ण से ज्यादा प्रभावी राधा का सम्प्रदाय है. कृष्ण कृष्ण बोलने वाले कम हैं, राधे राधे बोलने वालों की बहुलता है. उसी प्रकार यदि शैव सम्प्रदाय को लें तो उत्तर शैव काल 9 वीं शताब्दी के बाद शक्ति की उपासना ज्यादा प्रभावी हुई विशेष रूप से जब श्रीविद्या सम्प्रदाय का प्रभाव बढ़ गया. गणेश मूलभूत रूप से शाक्त ही हैं. रामायणी सम्प्रदाय में ‘लालदेह लाली लसै’ हनुमान भी मूलभूत रूप से शाक्त हैं. हनुमान और गणेश के बदन पर सिंदूर उनके शक्ति उपासक होने का ही प्रमाण देता है.

जिस तरह विष्णु और उनके अवतारों को वैष्णव कहा जाता है उसी प्रकार से शक्ति के उपासकों को शाक्त कहा जाता है. जैसे मैं मूलभूत रूप से शाक्त हूँ क्योंकि देवी दुर्गा के इतर मैं किसी अन्य देवता की उपासना नहीं करता. वैष्णव शिव के मन्दिर नहीं जाते क्योंकि यह व्रत है ‘एक भक्तिर्विशिष्यते”. शाक्त धर्म सृष्टि का सबसे पुराना धर्म है, यह अनादि है. ऋग्वेद के सबसे श्रेष्ठ मंडल दशम मंडल में ही देवी के सूक्त मिलते हैं. देवी सूक्त में शक्ति का यह वचन है –
यं कामये तं तमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम्॥५॥
मैं जिस – जिस जिस पुरुष की रक्षा करना चाहती हूँ, उस- उसको सबकी अपेक्षा अधिक शक्तिशाली बना देती हूँ । उसी को सृष्टिकर्ता ब्रह्मा , परोक्षज्ञान सम्पन्न ऋषि तथा उत्तम मेधाशक्ति से युक्त बनाती हूँ ॥५॥

तैत्तिरीय अरण्यक का प्रसिद्ध दुर्गा सूक्त शाक्त सम्प्रदाय की एक प्रमुख श्रुति है.
तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम् ।
दुर्गां देवीꣳ शरणमहं प्रपद्ये सुतरसि तरसे नमः ॥

इसके इतर पुरुष सूक्त की तरह ही ऋग्वेद का श्री-सूक्त है.
ये श्रुतियां हैं, लेकिन शाक्त सम्प्रदाय का सबसे प्रभावशाली और सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘दुर्गा-शप्तशती है”. यह मार्कण्डेयपुराण का हिस्सा है जिसे दूसरी या तीसरी शताब्दी में ऋषि मार्कंडेय के नाम पर लिखा गया था, कुछ का मानना है कि यह ईसापूर्व दूसरी-तीसरी शताब्दी में लिखा गया था. मार्कण्डेय ऋषि चिरंजीवियों में शरीक हैं और वे एक महान तपस्वी,विद्वान् शैवाचार्य और शाक्त थे. उनकी महानता इतनी थी कि वैष्णव सम्प्रदाय ने भी उन्हें महर्षि नारद की तरह ही महान वैष्णव कह कर अपनाया. महाभारत में वे वैष्णव और शैव दोनों हैं. मार्कण्डेय ऋषि शक्ति के परम उपासकों में एक माने गये हैं और उनपर शिव-शक्ति दोनों का ही वरद प्राप्त था. जिस समय दुर्गाशप्तशती लिखा गया उस तक उनकी शाक्त परम्परा मौजूद थी और ऋषि-मुनि उसपर चलते रहे थे. मार्कण्डेय ऋषि की शाक्त परम्परा का ही ग्रन्थ है “दुर्गाशप्तशती”. यह 700 श्लोकों का दिव्य ग्रन्थ हिन्दू धर्म का एकमात्र ग्रन्थ है जिसका परायण पुरे भारत वर्ष में नवरात्रि में 9 दिन तक ज्यादातर हिन्दुओं के घरों में होता है. यह रामायण,भागवत इत्यादि ग्रन्थों से ज्यादा प्रसिद्ध है और पुरे भारत में देवी मन्दिरों में,घरों में,अनेकानेक अनुष्ठानों में नित्य ही इसका करोड़ों बार परायण होता है.

दुर्गाशप्तशती एक सिद्ध मंत्रात्मक गन्थ है और इसमें महान साधकों की शक्ति निहित मानी जाती है. इस ग्रन्थ में कुछ अद्भुत स्तुतियाँ हैं जिनके जप से भक्तों की कामनाएं तत्काल पूर्ण होती हैं. दुर्गाशप्तशती को किसी श्रेष्ठ शाक्त ब्राह्मण के मुख से ग्रहण कर यदि पाठ किया जाये तो यह सभी कामनाओं की पूर्ण करता है. शाक्त परम्परा में शप्तशती की दीक्षा दी जाती है, बगैर दीक्षा इसका पाठ फलदायी नहीं होता. इस ग्रन्थ में ‘ॐ नमश्चण्डिकायै’ या ‘ॐ ऐं मार्कण्डेय उवाच’ इत्यादि भी मन्त्र माने गये हैं. शप्तशती का पाठ इसके अंगों सहित ही करना चाहिए,पाठ में त्रुटियाँ अक्षम्य मानी गई है. दुर्गा कल्प में ऐसा वर्णन है कि रावण ने अंगरहित पाठ किया था जिस कारण उसका सर्वनाश हुआ था. यह भी कहा गया है कि स्वयं ब्रह्मा जी ने देव दानव युद्ध में इसका परायण किया था. अपने अभीष्ट की प्राप्ति के लिए शप्तशती का परायण नवरात्रि में अवश्य करें.