भगवत महापुराण हिन्दू धर्म का मुकुट मणि है. इस ग्रन्थ पर हिन्दुओं की असीम श्रद्धा है. वैष्णवों के लिए तो यह ग्रन्थ उनकी आत्मा है . इस महान काव्यात्मक ग्रन्थ में आगम ग्रंथों के सार सिद्धांतों का बहुत सुंदर ढंग से वर्णन किया गया है . यह वेदांत के एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ के रूप में पूज्य है . परम्परा अनुसार हरएक हिन्दू मरने से पूर्व इस ग्रन्थ का श्रवण करता है . मान्यता है कि इसके श्रवण से वैकुण्ठ लोक की प्राप्ति होती है . इस ग्रन्थ में ज्योतिष के कई महत्वपूर्ण सन्दर्भ आये हैं . स्वयम भगवान हो या परीक्षित जैसे धर्म धुरंधर राजा ये सदैव शुभ मुहूर्त और शुभ राशियों , ग्रहों और नक्षत्रों के उदय में ही जन्म लेते हैं . ये निःसंदेह उनके शुभ कर्मों और संस्कारों की तरफ इंगित करता है . प्रथम स्कंध का यह सन्दर्भ परीक्षित के जन्म से सम्बन्धित है …
परीक्षित का जन्म
शौनक जी! ने कहा- अश्वत्थामा ने जो अत्यन्त तेजस्वी ब्रह्मास्त्र चलाया था, उससे उत्तरा का गर्भ नष्ट हो गया था; परन्तु भगवान ने उसे पुनः जीवित कर दिया। उस गर्भ से पैदा हुए महाज्ञानी महात्मा परीक्षित के, जिन्हें शुकदेव जी ने ज्ञानोपदेश दिया था, जन्म, कर्म, मृत्यु और उसके बाद जो गति उन्हें प्राप्त हुई, वह सब यदि आप ठीक समझें तो कहें; हम लोग बड़ी श्रद्धा के साथ सुनना चाहते हैं।
सूत जी ने कहा- धर्मराज युधिष्ठिर अपनी प्रजा को प्रसन्न रखते हुए पिता के समान उसका पालन करने लगे। भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों के सेवन से वे समस्त भोगों से निःस्पृह हो गये थे।
शौनकादि ऋषियों! उनके पास अतुल सम्पत्ति थी, उन्होंने बड़े-बड़े यज्ञ किये थे तथा उनके फलस्वरूप श्रेष्ठ लोकों का अधिकार प्राप्त किया था। उनकी रानियाँ और भाई अनुकूल थे, सारी पृथ्वी उनकी थी, वे जम्बूद्वीप के स्वामी थे और उनकी कीर्ति स्वर्ग तक फैली हुई थी। उनके पास भोग की ऐसी सामग्री थी, जिसके लिये देवता लोग भी लालायित रहते हैं। परन्तु जैसे भूखे मनुष्य को भोजन के अतिरिक्त दूसरे पदार्थ नहीं सुहाते, वैसे ही उन्हें भगवान के सिवा दूसरी कोई वस्तु सुख नहीं देती थी।
शौनक जी! उत्तरा के गर्भ में स्थित वह वीर शिशु परीक्षित जब अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र के तेज से जलने लगा, तब उसने देखा कि उसकी आँखों के सामने एक ज्योतिर्मय पुरुष है। वह देखने में तो अँगूठे भर का है, परन्तु उसका स्वरूप बहुत ही निर्मल है। अत्यन्त सुन्दर श्याम शरीर है, बिजली के समान चमकता हुआ पीताम्बर धारण किये हुए है, सिर पर सोने का मुकुट झिलमिला रहा है। उस निर्विकार पुरुष के बड़ी ही सुन्दर लम्बी-लम्बी चार भुजाएँ हैं। कानों में तपाये हुए स्वर्ण के सुन्दर कुण्डल है, आँखों में लालिमा है, हाथ में लूके के समान जलती हुई गदा लेकर उसे बार-बार घुमाता जा रहा है और स्वयं शिशु के चारों ओर घूम रहा है। जैसे सूर्य अपनी किरणों से कुहरे को भगा देते हैं, वैसे ही वह उस गदा के द्वारा ब्रह्मास्त्र के तेज को शान्त करता जा रहा था। उस पुरुष को अपने समीप देखकर वह गर्भस्थ शिशु सोचने लगा कि यह कौन है। इस प्रकार उस दस मास के गर्भस्थ शिशु के सामने ही धर्म रक्षक अप्रमेय भगवान श्रीकृष्ण ब्रह्मास्त्र के तेज को शान्त करे वहीं अन्तर्धान हो गये।
तदनन्तर अनुकूल ग्रहों के उदय से युक्त समस्त सद्गुणों को विकसित करने वाले शुभ समय में पाण्डु के वंशधर परीक्षित का जन्म हुआ। जन्म के समय ही वह बालक इतना तेजस्वी दीख पड़ता था, मानो स्वयं पाण्डु ने ही फिर से जन्म लिया हो। पौत्र के जन्म की बात सुनकर राजा युधिष्ठिर मन में बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने धौम्य, कृपाचार्य आदि ब्राह्मणों से मंगलवाचन और जातकर्म-संस्कार करवाये। महाराज युधिष्ठिर दान के योग्य समय को जानते थे। उन्होंने प्रजातीर्थ नामक काल में अर्थात् नाल काटने के पहले ही ब्राह्मणों को सुवर्ण, गौएँ, पृथ्वी, गाँव, उत्तम जाति के हाथी-घोड़े और उत्तम अन्न का दान दिया।
ब्राह्मणों ने सन्तुष्ट होकर अत्यन्त विनयी युधिष्ठिर से कहा- ‘पुरुवंशशिरोमणे! काल की दुर्निवार गति से यह पवित्र पुरुवंश मिटना ही चाहता था, परन्तु तुम लोगों पर कृपा करने के लिये भगवान विष्णु ने यह बालक देकर इसकी रक्षा कर दी। इसीलिये इसका नाम ‘विष्णुरात’ होगा। निस्सन्देह यह बालक संसार में बड़ा यशस्वी, भगवान का परम भक्त और महापुरुष होगा’।
युधिष्ठिर ने कहा- महात्माओं! यह बालक क्या अपने उज्ज्वल यश से हमारे वंश के पवित्र कीर्ति महात्मा राजर्षियों का अनुसरण करेगा?
ब्राह्मणों ने कहा- धर्मराज! यह मनुपुत्र इक्ष्वाकु के समान अपनी प्रजा का पालन करेगा तथा दशरथनन्दन भगवान श्रीराम के समान ब्राह्मणभक्त और सत्य प्रतिज्ञ होगा। यह उशीनर-नरेश शिबि के समान दाता और शरणागतवत्सल होगा तथा याज्ञिकों में दुष्यन्त के पुत्र भरत के समान अपने वंश का यश फैलायेगा। धनुर्धरों में यह सहस्राबाहु अर्जुन और अपने दादा पार्थ के समान अग्रगण्य होगा। यह अग्नि के समान दुर्धर्ष और समुद्र के समान दुस्तर होगा। यह सिंह के समान पराक्रमी, हिमाचल की तरह आश्रय लेने योग्य, पृथ्वी के सदृश तितिक्षु और माता-पिता के समान सहनशील होगा। इसमें पितामह ब्रह्मा के समान समता रहेगी, भगवान शंकर की तरह यह कृपालु होगा और सम्पूर्ण प्राणियों को आश्रय देने में यह लक्ष्मीपति भगवान विष्णु के समान होगा।
यह समस्त सद्गुणों की महिमा धारण करने में श्रीकृष्ण का अनुयायी होगा, रन्तिदेव के समान उदार होगा और ययाति के समान धार्मिक होगा। धैर्य में बलि के समान और भगवान श्रीकृष्ण के प्रति दृढ़ निष्ठा में यह प्रह्लाद के समान होगा। यह बहुत से अश्वमेध यज्ञों का करने वाला और वृद्धों का सेवक होगा। इसके पुत्र राजर्षि होंगे। मर्यादा का उल्लंघन करने वालों को यह दण्ड देगा। यह पृथ्वी माता और धर्म की रक्षा के लिये कलियुग का भी दमन करेगा। ब्राह्मण कुमार के शाप से तक्षक के द्वारा अपनी मृत्यु सुनकर यह सबकी आसक्ति छोड़ देगा और भगवान के चरणों की शरण लेगा। राजन्! व्यासनन्दन शुकदेव जी से यह आत्मा के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करेगा और अन्त में गंगा तट पर अपने शरीर को त्यागकर निश्चय ही अभयपद प्राप्त करेगा।
ज्यौतिषशास्त्र के विशेषज्ञ ब्राह्मण राजा युधिष्ठिर को इस प्रकार बालक के जन्म लग्न का फल बताकर और भेंट-पूजा लेकर अपने-अपने घर चले गये। वही यह बालक संसार में परीक्षित के नाम से प्रसिद्ध हुआ; क्योंकि वह समर्थ बालक गर्भ में जिस पुरुष का दर्शन पा चुका था, उसका स्मरण करता हुआ लोगों में उसी की परीक्षा करता रहता था कि देखें इनमें से कौन-सा वह है। जैसे शुक्ल पक्ष में दिन-प्रतिदिन चन्द्रमा अपनी कलाओं से पूर्ण होता हुआ बढ़ता है, वैसे ही वह राजकुमार भी अपने गुरुजनों के लालन-पालन से क्रमशः अनुदिन बढ़ता हुआ शीघ्र ही सयाना हो गया।

