गुरु शुक्र- गुरु बृहस्पति और दोनों के पुत्र और पुत्री कच और देवयानी के पैराणिक आख्यान से जुड़ा है तमिलनाडू के मदुरै स्थित बल्लभ पेरूमल मन्दिर. यह भारत का एक प्रसिद्ध गुरु मन्दिर है. दक्षिण भारत में इस मन्दिर के दर्शनार्थियों में ज्यादातर वे होते हैं जिनके लग्नधिपति गुरु है और जिनके जन्म नक्षत्र विशाखा और चित्रा हैं.
दो गुरुओं शुक्र और बृहस्पति का आख्यान बहुत प्रसिद्ध है और इसपर बहुत लेखकों ने लिखा है. कथानुसार एक बार देव और दानवों में युद्ध छिड़ा . दैत्य से देव कमजोर पड़ रहे थे, क्योंकि वे देवों के बड़े भाई थे, पुनः उनमें प्राण-शक्ति अधिक थी. एक और भी कारण था, दैत्यों के पूज्य गुरु शुक्राचार्य मरे हुए दैत्यों को पुन: जीवित कर देने वाला संजीवनी-मन्त्र जानते थे. यद्यपि देवता अमर थे और बुद्धि में असुरों से श्रेष्ठ, फिर भी बारम्बार असुरों की मरी हुई सेना को पुनः जीवित होते देख देवता घबरा गये थे. देवों के गुरु बृहस्पति ने देवों को बचाने का उपाय सोचा. श्रद्धा, भक्ति तथा सेवा आदि गुणों से असुर-गुरु को प्रसन्न कर, उनसे संजीवन-मन्त्र का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उन्होंने अपने रूपवान, ब्रह्मचारी पुत्र कच को उनके पास भेजा. कच की सेवा, श्रद्धा और गुरु-भक्ति देखकर गुरु शुक्राचार्य द्रवित हो गये. आचार्य शुक्र की कन्या देवयानी कच के रूप और गुणों की दिव्य छटा देखकर उस पर मुग्ध हो गयी और उसे हृदय से प्यार करने लगी. जब असुरों को यह मालूम हुआ कि बृहस्पति-पुत्र कच आचार्य के पास अध्ययन करने के लिए आये हुए हैं, उन्होंने स्वभावतः शंका हुई; कहीं ऐसा न हो जिस विद्या के बल पर हम लोग विजयी होते हैं, वह आचार्य की कृपा से इसे प्राप्त हो जाये. उन लोगों ने, शत्रु-पक्ष का होने के कारण, विद्यार्थी का प्राणान्त कर देने का निश्चय कर लिया. पर दैत्य आचार्य से डरते थे, इसलिए छिप कर ऐसा करने का संकल्प लिया. और एक दिन कच को उन्होंने मार भी डाला.

जब यह हाल देवयानी को मालूम हुआ, उसने पिता से कह मन्त्र-शक्ति द्वारा कच को पुनः जीवित करा लिया. असुरों ने फिर भी कई बार कच के प्राण लिये, पर देवयानी के प्रेम तथा शुक्राचार्य के संजीवन-मन्त्र के प्रताप से वह हर बार बचता रहा. अन्त में असुरों ने कच को मार कर उसको भोजन रूप में शुक्राचार्य को खिला दिया. अब कच को जीवित करने का एक ही उपाय था- शुक्राचार्य की मृत्यु. शुक्राचार्य समझ गये कि कच का प्रयोजन संजीवनी विद्या सीखना ही है. शुक्राचार्य ने मन मार कर कच को पेट में ही विद्या सिखाई, फिर उनका पेट फाड़ कर कच निकला और कच ने शुक्राचार्य को जीवित किया. शुक्राचार्य ने कच को श्राप दिया कि इस विद्या का प्रयोग वह नहीं कर पायेगा. कच ने कहा कि वह दूसरों को सिखा देगा.

अध्ययन समाप्त हो चुका था. गुरु की आज्ञा तथा पद-धूलि ग्रहण कर विदा होते समय कच देवयानी से भी मिलने गया. देवयानी को कच के विछोह से बड़ी व्याकुलता हुई, उसने कच के प्रति अपना अपार प्रेम प्रकट किया. परन्तु गुरु-कन्या जानकर कच ने उस प्रेम का प्रत्याख्यान किया. इससे देवयानी को क्रोध हुआ. कच को प्राण-दान अब तक उसी ने दिया था—एक बार नहीं, अनेक बार, अतः उसके प्राणों की वह अधिकारणी हो चुकी थी. परन्तु कच अपने प्राणों की बाज़ी लगाकर एक उद्देश्य की सिद्धि के लिए वहाँ गया था और फिर देवयानी उसके गुरु की कन्या थी जिसे सदा ही वह धर्म-बहन समझता आ रहा था; इसलिए धर्म तथा उद्देश्य को ही उसने प्रधान माना. देवयानी ने कच को रोकने की बड़ी चेष्टा की, इस कर्म में उसने सात पहाड़ बाधा के रूप में प्रकट किये जो वर्तमान मन्दिर के इदगिर्द आज भी दिखते हैं. देवयानी ने कच के दिल की सच्चाई देखकर प्रेम के उन्माद में श्राप दे दिया कि उसकी सीखी हुई विद्या निष्फल हो जाये. कच ने भी उद्देश्य की दृढ़ता पर अटल रहकर शाप दिया कि उसका यह अवैध प्रेम विवाह की हीनता को प्राप्त हो—उसे ब्राह्मण जाति का कोई पुरुष पत्नी-रूप में स्वीकार न करे. अमरावती पहुँचकर कच ने वह विद्या दूसरे को सिखा दी, और देवताओं का मनोरथ सफल किया.
कुरुविदुरै गुरु भगवान का यह मन्दिर दक्षिण में बड़ा प्रसिद्ध है. कथानुसार क्योंकि कच को बचाने के लिए बृहस्पति ने भगवान नारायण की उपासना की थी जिससे प्रसन्न होकर विष्णु भगवान ने उन्हें चित्रा नक्षत्र के उदय के समय में उन्हें दर्शन दिया था, इसलिए मन्दिर का नाम पड़ा ” चित्रा बल्लभ पेरूमल मन्दिर “. यहाँ चित्रा नक्षत्र के जातक अपने सौभाग्य के लिए दर्शन करने आते हैं.

