
गोत्र सुन्दरेश्वर मन्दिर तमिलनाडु के कंजनग्राम में स्थित शिव का स्वयंभू लिंगम है. यह ६३ शैव नयनार संतों में एक मनकंजरार की यह जन्मभूमि है . ऐसा माना जाता है कि जिन कृत्तिकाओं ने कुमार कार्तिकेय का पालन पोषण किया था उनका जन्म भी यहीं हुआ था. मान्यता के अनुसार कृतिका नक्षत्र में जन्म लेने वाले जातक यहाँ पर पूजन अर्चन करते हैं और बेहतर जीवन प्राप्त करते हैं . कृत्तिका नक्षत्र को चन्द्रमा का श्राप होने से यह एक क्रूर और अशुभ नक्षत्र बन गया. जिनका कृतिका नक्षत्र में जन्म हुआ है और यदि उन्हें जीवन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है तो उनके लिए यह मन्दिर वरदान है .

मन्दिर की कथा तारकासुर बध से जुडी है जिसममें कृत्तिकाओं की अहम भूमिका थी. तारकासुर एक भयंकर असुर था, जो तार का पुत्र तथा तारा का भाई था. इसने ब्रह्मा से वर पाने के लिए घोर तप किया और उन्हें प्रसन्न करके दो वर प्राप्त किये थे. तारकासुर ब्रह्मा से वरदान पाने के बाद और भी अत्याचारी और बलवान हो गया था. क्योंकि ब्रह्माजी के वरदान के अनुसार तारकासुर का वध केवल शिव से उत्पन्न होने वाला ही कोई कर सकता था, इसीलिए कार्तिकेय का जन्म हुआ. कार्तिकेय ने ही तारकासुर का वध किया. तारकासुर ने ब्रह्माजी की घोर तपस्या की थी। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने उससे वर माँगने के लिए कहा. तब तारकासुर ने दो वरदान माँगे-मेरे समान कोई बलवान न हो। -यदि मैं मारा जाऊँ तो उसी के हाथ से जो शिव से उत्पन्न हो.

ब्रह्मा से ये दोनों वर प्राप्त करके तारकासुर घोर अन्याय करने लगा. अन्याय से टतंग सारे देवता ब्रह्मा के पास आये. ब्रह्माजी ने कहा कि भगवान शिव के पुत्र के अतिरिक्त तारकासुर को और कोई नहीं मार सकता. देवताओं के पास समाधि में जा चुके शिव के ब्याह रचाने के अतिरिक्त कोई दूसरा उपाय नहीं था. सती अर्थात माता पार्वती दाह के बाद हिमावत के घर जन्म ले चुकी थी. देवताओं ने गिरिजा से भगवान शिव का विवाह करवा दिया लेकिन शिव जी ने पुत्र उत्पन्न करने की अनिच्छा जताई लेकिन गिरिजा के हठ करने पर साथ रहना स्वीकार किया. जब असुर तारकासुर का अत्याचार और अधिक बढ़ गया तब देवता भगवान विष्णु के पास जा पहुँचे. भगवान विष्णु ने उन्हें सुझाव दिया की वे कैलाश जाकर भगवान शिव से पुत्र उत्पन्न करने की विनती करें. विष्णु की बात सुनकर समस्त देवगण जब कैलाश पहुंचे, उन्हें वहां पता चला कि शिवजी और माता पार्वती तो विवाह के पश्चात से ही देवदारु वन में एकांतवास के लिए जा चुके हैं. विवश व निराश देवता जब देवदारु वन जा पहुंचे तब उन्हें पता चला की शिवजी और माता पार्वती वन में एक गुफा में निवास कर रहे हैं. देवताओं ने शिवजी से मदद की गुहार लगाई किंतु कोई लाभ नहीं हुआ, भोलेभंडारी तो कामपाश में बंधकर अपनी अर्धांगिनी के साथ सम्भोग करने में रत थे. उनको जागृत करने के लिए अग्नि देव ने उनकी कामक्रीड़ा में विघ्न उत्पन्न करने की ठान ली.

अग्निदेव जब गुफा के द्वार तक पहुंचे तब उन्होने देखा की शिव शक्ति कामवासना में लीन होकर सहवास में तल्लीन थे, किंतु अग्निदेव के आने की आहट सुनकर वे दोनों सावधान हो गए. सम्भोग के समय परपुरुष को समीप पाकर देवी पार्वती ने लज्जा से अपना सुंदर मुख कमलपुष्प से ढक लिया. देवी का वह रूप लज्जा गौरी के नाम से प्रसिद्द हो गया. कामक्रीड़ा में मग्न शिव जी ने जब अग्निदेव को देखा तब उन्होने भी सम्भोग त्यागकर अग्निदेव के समक्ष आना पड़ा. लेकिन इतने में कामातुर शिवजी का अनजाने में ही वीर्यपात हो गया. अग्निदेव ने उस अमोघ वीर्य को कबूतर का रूप धारण करके ग्रहण कर लिया व तारकासुर से बचाने के लिए उसे लेकर जाने लगे. किंतु उस वीर्य का ताप इतना अधिक था कि अग्निदेव से भी सहन नहीं हुआ. इस कारण उन्होने उस अमोघ वीर्य को गंगादेवी को सौंप दिया.

जब देवी गंगा उस दिव्य अंश को लेकर जाने लगी तब उसकी शक्ति से गंगा का पानी उबलने लगा. भयभीत गंगादेवी ने उस दिव्य अंश को शरवण वन में लाकर स्थापित कर दिया किंतु गंगाजल में बहते बहते वह दिव्य अंश छह भागों में विभाजित हो गया था. भगवान शिव के शरीर से उत्पन्न वीर्य के उन दिव्य अंशों से छह सुंदर व सुकोमल शिशुओं का जन्म हुआ. उस वन में विहार करती छह कृतिका कन्याओं की दृष्टि जब उन बालकों पर पडी तब उनके मन में उन बालकों के प्रति मातृत्व भाव जागा. और वो सब उन बालकों को लेकर उनको अपना स्तनपान कराने लगी. उसके पश्चात वे सब उन बालकोँ को लेकर कृतिकालोक चली गई व उनका पालन पोषण करने लगीं.

ऐसी मान्यता है कि ये कृतिकायें इस स्थल से जुडी हुई हैं. भारतीय वैदिक ज्योतिष में कृतिका को तीसरा नक्षत्र माना जाता है. कृतिका शब्द का अर्थ है कार्य को करने वाली, कार्तिकेय के पालन के कार्य को सिद्ध किया था इसलिए कृतिका नाम हुआ. इस प्रकार कृतिका शब्द के अनुसार यह नक्षत्र कार्य की सिद्धि से जुड़ा हुआ है. कृतिका नक्षत्र के प्रतीक चिन्ह का चित्रण सामान्य तौर पर कुल्हाड़ी, कटार या तेज धार वाले ऐसे ही अन्य शस्त्रों तथा औजारों के रुप में किया जाता है जो काटने के काम में प्रयोग किये जाते हैं. ज्योतिष के अनुसार अग्नि को भी कृतिका नक्षत्र के प्रतीक चिन्ह के रुप में चित्रित किया जाता है जो इस नक्षत्र के अग्नि स्वभाव को दर्शाता है.
यह मन्दिर बहुत बड़ा नहीं है लेकिन 3 हजार साल पुराना बताया जाता है. कृत्तिका नक्षत्र की शांति के लिए बहुत लोग यहाँ आते हैं. ग्रह-नक्षत्र दोष की शांति के उपाय हैं लेकिन प्रमुख उपाय इनका विधिपूर्वक अनुष्ठान है. लालची ज्योतिषी जो कुकुरमुत्ते की तरह इंटरनेट पर भरे पढ़े हैं उनके द्वारा किया कोई शांति कर्म सफल नहीं होता बल्कि उल्टा फल मिलता है. ये ज्यादातर अज्ञानी हैं, ये साधना इत्यादि भी कुछ नहीं करते है.