
रमण महर्षि (1879-1950) आधुनिक काल के महान वेदांत गुरु और संत थे. रमण महर्षि ने अद्वैत सिद्धि प्राप्त की थी और वेदांत का बहुत सरल भाषा में उपदेश किया. उनके उपदेश अक्सर अवधूतों की तरह बहुत रहस्मय होते थे. अवधूत गीता, अष्टावक्र संहिता और उपदेश सहस्री जैसे ग्रन्थों में जिस तरह अद्वैत का उपदेश किया गया है, उसी त्वरा में रमण महर्षि के उपदेश भी हैं. रमण महर्षि के पास जब अंग्रेज लेखक पॉल ब्रन्टन गए थे, तब उनके पास अनेकों प्रश्न थे. उन्होंने लगभग पूरी दुनिया की यात्रा की थी, अनेकों पुस्तकें पढ़ी थी और कई पुस्तकें तो स्वयं भी लिखी थी. उन्हें एक लब्ध प्रतिष्ठित विद्वान् माना जाता था. रमण महर्षि ने उनके सारे प्रश्नों के प्रत्युत्तर में केवल एक बात कही कि सिर्फ एक प्रश्न सार्थक है- मैं कौन हूँ? बाकी सब प्रश्न तो अपने आप ही हल हो जाएँगे. तो पॉल ब्रन्टन ने कहा अच्छी बात है, यही पूछता हूँ, कि मैं कौन हूँ? उत्तर में महर्षि हंसने लगे, अब यह भी मुझसे पूछोगे? अरे आंखें बन्द करो और अपने आप से पूछो. पूछते जाओ, खोजते जाओ. अब इतना तो पक्का है कि तुम हो. इतना ही नहीं तुम हो और चेतन हो- यह भी पक्का है. अन्यथा मुझसे पूछते कैसे? अब आगे तुम खोजो. पॉल ब्रन्टन ने एक जुज्ञासु की तरह सवाल पूछे- मैं कौन हूँ? आत्मसाक्षात्कार का रास्ता क्या है? भक्ति क्या है?ईश्वर क्या है? इन प्रश्नों का उत्तर उन्होंने बड़ी सरल भाषा में दिया. रमण महर्षि ने तिरुवन्नमलै में शिखासूत्र त्याग कौपीन धारण किया था और 25 वर्ष तपस्या, आत्मचिन्तन के बाद सम्बोधि की प्राप्ति की थी. रमण महर्षि तिरुवन्नमलै स्थित अरुणांचलेश्वर शिव के परम भक्त थे.

ऐसा उनकी बायोग्राफी में जिक्र है कि 14 अप्रैल 1950 की रात्रि को आठ बजकर सैंतालिस मिनट पर जब महर्षि रमण महाप्रयाण को प्राप्त हुए, उस समय आकाश में एक तीव्र ज्योति का तारा उदय हुआ एवं अरुणाचल की दिशा में अदृश्य हो गया. देश विदेश के बड़े बड़े विद्वान उनके शिष्यों में शरीक थे.
श्री रमण महर्षि की कुंडली नीचे दी जा रही है –

मैं कौन हूँ ?
सप्तधातुओं से बना यह स्थूल शरीर मैं नहीं हूँ. शब्द स्पर्श, रूप, रस, गंध इन पांच विषयों की पृथक पृथक ग्रहण करने वाले कर्ण, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, नासिका ये पंच ज्ञानेन्द्रियाँ भी मैं नहीं हूँ. वाणी, गमन, ग्रहण, मल-विसर्जन, आनन्द -ये पंचविध क्रियाएं करने वाली -वाक्, पाद, पाणि, पायु, उपस्थ, ये कर्मेन्द्रियाँ भी मैं नहीं हूँ. स्वांसादि पंच कर्म करने वाले पंच प्राण भी मैं नहीं हूँ. संकल्प करने वाला मन भी मैं नहीं हूँ. सर्व विषयों एवं सर्व कर्मों से रहित तथा केवल विषय वासनाओं से युक्त अज्ञान भी मैं नहीं हूँ.
यदि मैं इनमें से कोई नहीं तो फिर मैं कौन हूँ ?
उपरोक्त सभी को ‘नेति नेति से निरस्त करने के बाद जो बच जाता है, वही ‘मैं’ हूँ.