
खुद को सनातनी हिंदू कहने वाले ज्यादातर पुराणवादी हैं. ये मूलभूत रूप से पिछड़ी चेतना के दकियानूस विचार रखने वाले, रुढ़िवादी हैं. यह उसके लिए लड़ने वाले, प्रगति विरोधी, जाति व्यवस्था और पितृसत्ता को बढ़ावा देने वाली जमात हैं. सनातन का अर्थ हिन्दू नहीं है. सनातन शब्द का सबसे पहले इस्तेमाल कहाँ हुआ है? और किस परिप्रेक्ष्य और सन्दर्भ में किया गया है, यह देखना चाहिए. सनातन शब्द का पहला प्रयोग गीता और उपनिषदों में ही हुआ है. शाश्वत, सनातन, पुराण ये शब्द दो तरह से प्रयुक्त हुआ है. पहला यह ईश्वर या ब्रह्म के लिए किया गया है और दूसरा, शाश्वत ईश्वरीय सिद्धांतों जैसे सत्य, अहिंसा इत्यादि को भी सनातन कहा जाता है. ये सिद्धांत सृष्टि के प्रारम्भ में ईश्वर ने स्थापित किये थे ‘ऋतं च, सत्यं च”, ये सिद्धांत शाश्वत हैं. जब तक यह संसार है, एक ही ईश्वरीय सत्य अबाध गति से चलता रहता है.
भगवद्गीता में शाश्वत शब्द का प्रयोग इसी सन्दर्भ में किया गया है –
न जायते म्रियते वा कदाचि
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे।। 2.20।।
यह आत्मा किसी काल में भी न जन्मता है और न मरता है और न यह एक बार होकर फिर अभावरूप होने वाला है। यह आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है, शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता।
आत्मा का नाश नहीं होता है क्योंकि एकमात्र सत्य वही है, शेष जो कुछ भी दृश्य है वह मिथ्या है, उसका नाश आवश्य होता है. जो कुछ भी उस अविनाशी ब्रह्म से जुड़े हुए सत्य हैं, आचार हैं, जो उसकी संसिधि में हेतु है, वह भी शाश्वत कहा गया है. कर्म की सिद्धि के लिए ईश्वर ने सृष्टि के प्रारम्भ में वेदों को प्रकट किया था. वेदों को भी इसलिए शाश्वत और अपौरुषेय कहा गया है. वेदों का ज्ञान शाश्वत है. इससे उत्पन्न ऋषियों का धर्म और उनकी शिक्षाएं भी शाश्वत हैं, इसलिए यह सनातन है. ईश्वर पुराण पुरुष हैं जिसने वेदों को सृष्टि के आदि में ब्रह्मा जी को प्रदान किया और ब्रह्मा ने ऋषियों को प्रदान किया. इस प्रकार दोनों ही सनातन हैं. अब इससे निःसृत लोकाचार भी इसलिए सनातन है क्योंकि वह ऋत और सत्य पर आधारित है. उपनिषद में इसीलिए कहा है कि उस परमात्मा का ऋत दक्षिण पक्ष है, सत्य उत्तर पक्ष है. दूसरी तरफ भगवद्गीता में सनातन वो धर्म, क्रियाएं और आचार हैं जिनका सम्बन्ध व्यक्ति की मुक्ति से है. गीता में इस प्रसंग में भी सनातन शब्द का प्रयोग हुआ है -” कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
क्या यह जीवन शाश्वत नहीं है? यह जीवन चक्र भी रिलेटिवली शाश्वत है. इसका अंत तब तक नहीं होता जब तक मनुष्य ब्रह्म लोक की प्राप्ति नहीं कर लेता. भगवद्गीता में जो कुछ प्रवृत्त हो रहा है(जीवन) और जो कुछ निवृत्त हो रहा है (सन्यास- मोक्ष)-यह दोनों ही अनादि है अर्थात दोनों ही सनातन है. यह सृष्टि के प्रारम्भ से ही है. सत्य, अहिंसा, अचौर्य इत्यादि ईश्वरीय धर्म हैं, इसलिए इन्हें सनातन कहा गया हैं. इन सनातन मूल्यों पर चलने वाले को उपनिषद में “हे प्राचीनयोग्य ” अर्थात ‘हे सनातनी” ऐसा सम्बोधन किया गया है.
गौतम बुद्ध ने सनातन शब्द का प्रयोग करते हुए यह पद कहा –
न ही वेरेन वेरानि, सम्मन्तीध कुदाचनं अवेरेन च सम्मन्ति, एस धम्मो सनन्तनो।
वैर से वैर शांत नहीं होते, बल्कि अवैर से शांत होते हैं। यही सनातन धर्म है।
यहाँ भी सनातन का प्रयोग ‘ऋतं च, सत्यं च ‘ के सन्दर्भ में ही किया गया है. यथायोग्य सदाचार का पालन करना और सत्य बोलना तथा सत्य पर चलना अर्थात धर्म पर चलना- “सत्यं वद, धर्म चर” यह सनातन सिद्धांत है. जिन सिद्धांतों पर लौकिक सदाचरण स्थित हैं वो भी सनातन हैं. किसी से घृणा मत करो, हिंसा मत करो.