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भारद्वाजवंशी गर्ग ऋषि भगवान विष्णु के परम भक्त हैं। भागवत पुराण में इन्हें महातपस्वी और यदुवंशियों का कुल पुरोहित बताया गया है –  गर्ग: पुरोहितो राजन यदुनाम सुमहातपा। श्रीकृष्ण वासुदेव के जन्म के उपरांत उनकी प्रेरणा से ही गर्गाचार्य नन्द बाबा के घर पधारे ‘ब्रजं जगाम नन्दस्य वासुदेवप्रचोदित:”। नन्दबाबा ने साक्षात् भगवान ही हैं, ऐसा समझ कर उनका स्वागत तथा पूजन किया और अपने बच्चों का भविष्य देखने की प्रार्थना करते हुए कहा –

महद्विचलनं नृणां गृहिणां दीनचेतसाम् ।
नि:श्रेयसाय भगवन्कल्पते नान्यथा क्‍वचित् ॥
आप जैसे महात्माओं का हमारे जैसे गृहस्थों के घर आ जाना ही हमारे परम कल्याण का कारण है. हम तो घर में इतने उलझे रहे हैं और प्रपंचों से हमारा चित्त इतना दीं हो रहा है कि हम आपके आश्रम तक जा भी नहीं सकते. हमारे कल्याण के सिवाय आपके आगमन का कोई हेतु नहीं है.
ज्योतिषामयनं साक्षाद् यत्तज्ज्ञानमतीन्द्रियम् ।
प्रणीतं भवता येन पुमान् वेद परावरम् ॥
त्वं हि ब्रह्मविदां श्रेष्ठ: संस्कारान्कर्तुमर्हसि ।
बालयोरनयोर्नृणां जन्मना ब्राह्मणो गुरु: ॥
प्रभो ! जो बात साधारणत: इन्द्रियों की पहुंच के बाहर है अथवा भूत और भविष्य के गर्भ में निहित है, वह भी ज्योतिष शास्त्र द्वारा प्रतक्ष जान ली जाती है. आपने उसी ज्योतिष शास्त्र की रचना की है. आप ब्रह्म वेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं इसलिए मेरे मेरे इन दोनों बालकों का नाम करण कर दीजिये क्योंकि ब्राह्मण जन्म से ही मनुष्यमात्र का गुरु होता है.

गर्गाचार्य ने कहा –
श्रीगर्ग उवाच
यदूनामहमाचार्य: ख्यातश्च भुवि सर्वदा ।
सुतं मया संस्कृतं ते मन्यते देवकीसुतम् ॥
कंस: पापमति: सख्यं तव चानकदुन्दुभे: ।
देवक्या अष्टमो गर्भो न स्त्री भवितुमर्हति ॥
इति सञ्चिन्तयञ्छ्रुत्वा देवक्या दारिकावच: ।
अपि हन्ता गताशङ्कस्तर्हि तन्नोऽनयो भवेत् ॥
मैं सर्वत्र यदुवंशियों के आचार्य के रूप में प्रसिद्ध हूँ. यदि मैं तुम्हारे पुत्र के संस्कार करूंगा तो लोग समझेंगे कि यह तो देवकी पुत्र है. कंस की बुद्धि में बड़ी बुरी है, वह सदैंव पाप ही सोचता रहता है. वासुदेव के सात्ब तुम्हारी घनिष्ट मित्रता है. जबसे देवकी की कन्या से उसने यह बात सुनी है कि उसको मारने वाला और कहीं पैदा हो गया है, तब से वह यही सोचा करता है कि देवकी के आठवे गर्भ से कन्या का जन्म नहीं होना चाहिए. यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार कर दूँ और इस बालक को वासुदेव का लड़का समझ कर मार डाले तो बड़ा भारी अनिष्ट हो जाएगा.

नन्द बाबा ने कहा –
अलक्षितोऽस्मिन् रहसि मामकैरपि गोव्रजे ।
कुरु द्विजातिसंस्कारं स्वस्तिवाचनपूर्वकम् ॥
आचार्य जी आप चुप चाप इस एकांत गोशाला में स्वस्तिवाचन करके इस बाल का द्विजाति समुचित संस्कार मात्र कर दीजिये. औरों की कौन कहे,  एरे सगी सम्बन्धी भी इस बात को नहीं जान पायेंगे.

नन्द के ऐसा कहने पर गर्गाचार्य नें दोनों बालकों का नामकरण गुप्त रूप से गोशाला में किया और इस प्रकार से बोले –

आसन् वर्णास्त्रयो ह्यस्य गृह्णतोऽनुयुगं तनू: ।
शुक्लो रक्तस्तथा पीत इदानीं कृष्णतां गत: ॥
प्रागयं वसुदेवस्य क्‍वचिज्जातस्तवात्मज: ।
वासुदेव इति श्रीमानभिज्ञा: सम्प्रचक्षते ॥
बहूनि सन्ति नामानि रूपाणि च सुतस्य ते ।
गुणकर्मानुरूपाणि तान्यहं वेद नो जना: ॥
एष व: श्रेय आधास्यद् गोपगोकुलनन्दन: ।
अनेन सर्वदुर्गाणि यूयमञ्जस्तरिष्यथ ॥

य एतस्मिन् महाभागा: प्रीतिं कुर्वन्ति मानवा: ।
नारयोऽभिभवन्त्येतान् विष्णुपक्षानिवासुरा: ॥
इत्यात्मानं समादिश्य गर्गे च स्वगृहं गते ।
नन्द: प्रमुदितो मेने आत्मानं पूर्णमाशिषाम् ॥

गर्ग संहिता में नामकरण प्रसंग .
भागवत महापुराण गर्ग संहिता से प्राचीन नहीं है.. गर्ग संहिता और भागवतं में श्री कृष्ण का युग के अनुसार वर्ण अलग अलग बताया गया है. भगवान सतुयग में स्वेत वर्ण, त्रेता में पीत वर्ण, द्वापर में रक्त वर्ण और कलियुग में कृष्ण वर्ण के होते हैं –  यह सिद्धांत पांचरात्र और अन्य वैष्णव संहिताओ में भी उपलब्ध होता है. भगवान कलियुग और द्वापर की संधि में पैदा हुए थे इसलिए कलियुग के अनुसार उनका कृष्ण वर्ण हुआ था लेकिन द्वापर के अनुसार रक्त वर्ण उनके कर्म में प्रभावी था. कलियुग के अंत में उनका असली कृष्ण रूप कल्कि के रूप में अवतरित होगा-
गर्गाचार्य नें श्री कृष्ण के नाम के तात्विक स्वरूप का वर्णन करके कहा -परिपूर्णतमेसाक्षात्तेनकृष्ण: परिकीर्तित: | फिर कहा-
यस्मिन सर्वाणि तेजांसि विलीयन्ते स्वतेजसि।
त वेदान्त परे साक्षात् परिपूर्णं स्वयम्।।

जिनमे सृष्टि के सभी तेज विलीन होकर एकीभूत हो उनके तेज में ही मिल जाते हैं, वो श्री कृष्ण वेदांत से भी परे स्वयं परिपूर्ण ब्रह्म हैं ।