कलकत्ते के जानबाजार मुहल्ले में रानी रासमणि नाम की बहुत धर्मनिष्ठ महिला रहती थी। अपने धर्म और सत्कर्मों से उनकी अच्छी प्रसिद्घि थी। एक कुलीन कुल की ये एक विधवा रानी थीं। इनकी काली के पद्मपादों में विशेष भक्ति थी जिसके कारण इन्होने अपने राजकीय मोहर पर भी उनका नाम अंकित कराया था ‘कालीपद अभिलाषी रानीरासमणि दासी”। उनकी बड़ी इच्छा थी कि वे काशीधाम की यात्रा करें और वहां स्थित अन्नपूर्णा देवी की विधिवत पूजा अर्चना करें। समय आने पर सन १८४९ को जब उन्होंने काशी यात्रा का प्रबंध किया और जाने को उद्धत हुईं तो रात को उन्हें माँ काली का दर्शन प्राप्त हुआ था ” मेरी पूजा के लिए तुम्हें काशी जाने की आवश्यकता नहीं है। तुम यहीं भागीरथी के तट पर किसी सुंदर स्थान पर मेरी स्थापना करो। मैं यहीं तुम्हारी नित्यप्रति पूजा स्वीकार करूंगी।”
इस दर्शन के बाद रासमणि ने यात्रा को स्थगित कर दिया था और मन्दिर निर्माण में जोरशोर से जुट गई थीं। रानी रासमणि ने मन्दिर का निर्माण कमोवेश १८५५ तक कर लिया था लेकिन मन्दिर बहुत वृहद होने अनेक कार्य अभी शेष रह गये थे। रानी को उनके जीवनकाल में मन्दिर की स्थापना न हो पाने पर संदेह होता था। इस संदेह के कारण उन्होंने मुहूर्त के अनुसार ३१ मई १८५५ को श्रीजगन्नाथ की स्नान यात्रा के दिन श्रीमाता जगज्जननी की स्थापना का कार्य सम्पन्न कराया था। यह तिथि रानी रासमणि के मन्दिर सम्बन्धी देवसेवा के निमित्त दानपत्र पर अंकित है। रामकृष्ण परमहंस ने भी रानी रासमणि के सम्बन्ध में बहुत सी बातें कही थीं। उन्होंने रानी के सपने की बात बताते हुए कहा था कि रात में स्वप्न में देवी का आदेश मिलने के कारण उन्होंने यात्रा का संकल्प त्याग दिया था और मन्दिर प्रतिष्ठा के लिए उपयुक्त स्थान की खोज में लग गई थीं। उन्होंने रासमणि द्वारा मन्दिर के लिए जमीन लेने के बारे में भी एक आश्चर्यजनक बात कही थी।
यह जगन्माता महाकाली की प्रेरणा ही थी कि उन्हें जमीन एक श्मशान में मिला जो कूर्माकार था अर्थात कछुए की पीठ जैसा था। वर्तमान मन्दिर की भूमि का कुछ हिस्सा मुसलमानों का कब्रिस्तान रहा था जहाँ आज पञ्चवटी स्थित है। इसी पंचवटी में रामकृष्ण परमहंस ने अनेक साधनाएं और ध्यान किया था । तंत्र में कूर्म पृष्ठाकृति श्मशान भूमि को ही शाक्त प्रतिष्ठा और साधना के लिए उपयुक्त माना गया है। सनातन धर्म में कूर्म योग का प्रतीक है। भगवान ने योगी की उपमा कूर्म से दी है, ” जिस तरह कछुआ अपने अङ्गोंको सब ओरसे समेट लेता है, ऐसे ही जिस कालमें यह कर्मयोगी इन्द्रियोंके विषयोंसे इन्द्रियोंको सब प्रकारसे समेट लेता (हटा लेता) है, तब उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित हो जाती है।” कूर्म पीठ पर ही समुद्र मंथन हुआ था। अनुष्ठान पूजा में कूर्म चक्र बनाया जाता है, कहा गया है कि कूर्म के मुख पर सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। सिद्धि के लिए मन्दिर की भूमि मिल चुकी थी। जगज्जनी के मूर्ति निर्माण के प्रारम्भ से प्रतिष्ठा होने तक रानी रासमणि ने कठोर व्रत, पूजन, जप इत्यादि किये थे, हविष्यान्न, भूमिशयन किया था। रामकृष्ण के अनुसार देव विग्रह का निर्माण हो जाने पर टूटने की आशंका से उसे एक सन्दुक में बंद कर दिया गया था। उस समय जो भी कारण रहा हो मूर्ति पसीने से भीग उठी थी और रानी को स्वप्न हुआ था -“मुझे और कितने दिन इस प्रकार बंद रखना चाहती है? मुझे अत्यंत कष्ट हो रहा है, जितनी जल्द हो मेरी प्रतिष्ठा कर।” इस आदेश के बाद रानी मुहूर्त के अनुसार मन्दिर में देवी की भव्य प्रतिष्ठा करवाई थी और मन्दिर के लिए पर्याप्त जमीन दान किया था तथा धन और अन्न का समुचित प्रबंध किया था।
– राजेश शुक्ला “गर्ग” की किताब रामकृष्ण परमहंस : आध्यात्म प्रसंग -१ से साभार

