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वाल्मिकी रामायण का बालि वध आर्यों का एक बहुत खतरनाक राजनैतिक और नैतिक धर्म विमर्श है. त्रेतायुग का यह नैतिक विमर्श एक वानर से थोडा सभ्य हो चुके मनुष्य और वानर के बीच है. यह वानर मूलभूत रूप से एक जनजाति है. जनजाति सभ्य संस्कृतियों के लिए सदैव वानर के जैसे रहे हैं, आधा मनुष्य आधा वानर अर्थात असभ्य हैं, सुसंस्कृत नहीं हैं. कथा में वनवासी मनुष्य एक राजा का पुत्र है जो इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न भरत राज वंश से सम्बन्धित है. इक्ष्वाकु के पिता राजा मनु ने आर्यों के लिए नैतिक नियम बनाये जिसे मनुस्मृति कहते हैं. मनुस्मृति को ही धर्म मान कर इक्ष्वाकु वंशीय राजा राज करते थे. राम भी इस कथा में इक्ष्वाकु वंश द्वारा निर्मित मनुस्मृति को धर्म मानते हैं, उसके लिए लड़ते हैं और जो इस धर्म को नहीं मानता उसका वध कर देते हैं. यहाँ इस कथा में उन्होंने एक वानर का वध कर दिया है जिसके कर्म मनुस्मृति के अनुसार नहीं थे.

कथा में एक बाली नाम का वानर(जनजाति) दूसरे सुग्रीव नामक वानर (जनजाति) को बल पूर्वक मार कर भगा देता है और उसकी वानरी को अपना बना लेता है. उसके साथ अन्य वानरियों की तरह ही सहवास करता है. वानरों में प्रमुख बानर अर्थात सरदार का नैसर्गिक स्वभाव होता है कि वह अपने क्षेत्र का एकमात्र राजा होता है और सभी बनरियां उसकी भोग्या होती हैं. बानरों में भी कुछ मनुष्योचित गुण होते हैं, वे भी किसी वानरी विशेष के प्रति ज्यादा आकृष्ट रहते हैं. यहाँ कथा में वानरों का सरदार बाली, दूसरे नम्बर के बलशाली बानर सुग्रीव को मार कर अपने साम्राज्य से भगा देता है और उसकी प्रिय वानरी को अपनी प्रिय रानियों में शरीक कर लेता है और उसके साथ सेक्स करता है. एक दूसरा वानर हनुमान (जनजाति) जो थोड़ा सभ्य हो गया है, वह आर्यों के देवता की पूजा करता है. वह वैष्णव ब्राह्मणों की संगति में वैष्णव हो गया है और वैष्णव तिलक लगाता है. वह ब्राह्मण जैसा रहता है. यह वानर आर्य ऋषियों के सम्पर्क से ‘राम राम’ करना सीख गया है और थोड़ा सभ्य हो चूका है. यह अपनी जनजातीय संस्कृति छोड़ चूका है. उससे किष्किन्धा के वन में इक्ष्वाकु वंशीय राजकुमार राम की मुलाकात होती है. राजकुमार की पत्नी को मनुष्य-राक्षस रावण बदले की भावना से चुरा ले गया है. यह वनवासी राजकुमार सहायता खोज रहा है. अपने देश अयोध्या से बहुत दूर घने जंगल में, एक नये प्रान्त में, उसे कुछ भी ज्ञात नहीं. उसके लिए सीता का खोज पाना मुश्किल है. ऐसे बुरे समय में राम की वानर हनुमान से मुलाकात होती है. यह वानर किष्किन्धा के वन में रहने वाली सभी जनजातियों को जानता है. वानर हनुमान, राम की सुग्रीव नामक वानर से मुलाकात कराता है जो अपना खोया हुआ राज पाना चाहता है. कथा इसी वानर की है जिसे दूसरे शक्तिशाली वानर ने मार कर भगा दिया है.

सुग्रीव -बाली युद्ध के बाद जब छुप कर राम बाली को मार देते हैं, तब बाली ने जो वचन कहे उसमे उसने खुद को बार बार “मैं वानर हूँ” यही कहा. उसने कहा कि मैं वानर हूँ, हमारा रहन सहन, हमारी सेक्स करने की प्रक्रिया, हमारी नैतिकता अलग है. हम वानरों, जीव जन्तुओं पर मनुस्मृति की नैतिकता नहीं लागू हो सकती है. वानर बाली राम के दंड देने के अधिकार पर भी सवाल खड़े करता है. राम का उत्तर काफी हास्यास्पद है, राम कहते हैं “पर्वत, वन और काननों से युक्त यह सारी पृथ्वी इक्ष्वाकुवंशी राजाओं की है;  वर्तमान में भरत इस पृथ्वी के राजा हैं.  भरत की ओर से हमें तथा दूसरे राजाओं को यह आदेश प्राप्त है कि जगत् में धर्म के पालन और प्रसार के लिये यत्न किया जाय. इसलिये हमलोग धर्म का प्रचार करने की इच्छा से सारी पृथ्वी पर विचरते रहते हैं. यह पर्वत, वन और कानन हमारे अधिकार में हैं अतः वे यहाँ के पशु-पक्षी को भी दण्ड देने के भी अधिकारी हैं और उन पर मनुस्मृति को लागू करने का नैसर्गिक अधिकार है. “

वाल्मीकि रामायण में जो राम कहते हैं कि –
तस्य धर्मकृतादेशा वयमन्ये च पार्थिवाः।
चरामो वसुधां कृत्स्नां धर्मसंतानमिच्छवः॥९॥

‘भरत की ओर से हमें तथा दूसरे राजाओं को यह आदेश प्राप्त है कि जगत् में धर्म के पालन और प्रसार के लिये यत्न किया जाय। इसलिये हमलोग धर्म का प्रचार करने की इच्छा से सारी पृथ्वी पर विचरते रहते हैं
इससे इतिहास की बात और उलझ जाती है. क्या उस समय भरत राज्य कर रहे थे? क्या राम जैसे अनेक छोटे छोटे राजा उनके लिए घूम घूम कर मनुस्मृति के धर्म की स्थापना के लिए लड़ रहे थे?

क्या राम को वनवासी मूलभूत रूप से धर्म प्रचार और मनुस्मृति के सम्विधान को  मनुष्य, आदिवासी, वानर, जीव जन्तुओं, पशु  पक्षियों पर लागू करने के लिए षड्यंत्र पूर्वक किया गया था ??

कथा को ध्यान से पढ़ें –

स भूमावल्पतेजोऽसुर्निहतो नष्टचेतनः।
अर्थसंहितया वाचा गर्वितं रणगर्वितम्॥१५॥

अब उसमें तेज और प्राण स्वल्पमात्रा में ही रह गये थे। वह बाण से घायल होकर पृथ्वी पर पड़ा था और उसकी चेष्टा धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही थी। उसने युद्ध में गर्वयुक्त पराक्रम प्रकट करने वाले गर्वीले श्रीराम से कठोर वाणी में इस प्रकार कहना आरम्भ किया— 

त्वं नराधिपतेः पुत्रः प्रथितः प्रियदर्शनः।
परामखवधं कृत्वा कोऽत्र प्राप्तस्त्वया गुणः।
यदहं युद्धसंरब्धस्त्वत्कृते निधनं गतः॥१६॥

रघुनन्दन ! आप राजा दशरथ के सुविख्यात पुत्र हैं। आपका दर्शन सबको प्रिय है। मैं आपसे युद्ध करने नहीं आया था। मैं तो दूसरे के साथ युद्ध में उलझा हुआ था। उस दशा में आपने मेरा वध करके यहाँ कौन-सा गुण प्राप्त किया है—किस महान् यश का उपार्जन किया है? क्योंकि मैं युद्ध के लिये दूसरे पर रोष प्रकट कर रहा था, किंतु आपके कारण बीच में ही मृत्यु को प्राप्त हुआ।

कुलीनः सत्त्वसम्पन्नस्तेजस्वी चरितव्रतः।
रामः करुणवेदी च प्रजानां च हिते रतः॥१७॥
सानुक्रोशो महोत्साहः समयज्ञो दृढव्रतः।
इत्येतत् सर्वभूतानि कथयन्ति यशो भुवि॥१८॥

इस भूतल पर सब प्राणी आपके यश का वर्णन करते हुए कहते हैं-श्रीरामचन्द्रजी कुलीन, सत्त्वगुणसम्पन्न, तेजस्वी, उत्तम व्रत का आचरण करने वाले, करुणा का अनुभव करने वाले, प्रजा के हितैषी, दयालु, महान् उत्साही, समयोचित कार्य एवं सदाचार के ज्ञाता और दृढ़प्रतिज्ञ हैं।

दमः शमः क्षमा धर्मो धृतिः सत्यं पराक्रमः।
पार्थिवानां गुणा राजन् दण्डश्चाप्यपकारिषु॥१९॥

‘राजन् ! इन्द्रियनिग्रह, मन का संयम, क्षमा, धर्म, धैर्य, सत्य, पराक्रम तथा अपराधियों को दण्ड देना ये राजा के गुण हैं ।

स त्वां विनिहतात्मानं धर्मध्वजमधार्मिकम्।
जाने पापसमाचारं तृणैः कूपमिवावृतम्॥२२॥

‘परंतु आज मुझे मालूम हुआ कि आपकी बुद्धि मारी गयी है। आप धर्मध्वजी हैं। दिखावे के लिये धर्म का चोला पहने हुए हैं। वास्तव में अधर्मी हैं। आपका आचार-व्यवहार पापपूर्ण है। आप घासफूस से ढके हुए कूप के समान धोखा देने वाले हैं।
सतां वेषधरं पापं प्रच्छन्नमिव पावकम्।
नाहं त्वामभिजानामि धर्मच्छद्माभिसंवृतम्॥२३॥

‘आपने साधु पुरुषोंका-सा वेश धारण कर रखा है; परंतु हैं पापी। राख से ढकी हुई आग के समान आपका असली रूप साधु-वेष में छिप गया है। मैं नहीं जानता था कि आपने लोगों को छलने के लिये ही धर्म की आड़ ली है।
विषये वा पुरे वा ते यदा पापं करोम्यहम्।
न च त्वामवजानेऽहं कस्मात् तं हंस्यकिल्बिषम्॥२४॥

‘जब मैं आपके राज्य या नगर में कोई उपद्रव नहीं कर रहा था तथा आपका भी तिरस्कार नहीं करता था, तब आपने मुझ निरपराध को क्यों मारा?
फलमूलाशनं नित्यं वानरं वनगोचरम्।
मामिहाप्रतियुध्यन्तमन्येन च समागतम्॥२५॥

‘मैं सदा फल-मूल का भोजन करने वाला और वन में ही विचरने वाला वानर हूँ। मैं यहाँ आपसे युद्ध नहीं करता था, दूसरे के साथ मेरी लड़ाई हो रही थी। फिर बिना अपराध के आपने मुझे क्यों मारा ?
त्वं नराधिपतेः पुत्रः प्रतीतः प्रियदर्शनः।
लिङ्गमप्यस्ति ते राजन् दृश्यते धर्मसंहितम्॥२६॥

‘राजन्! आप एक सम्माननीय नरेश के पुत्र हैं। विश्वास के योग्य हैं और देखने में भी प्रिय हैं। आपमें धर्म का साधनभूत चिह्न (जटा) वल्कल धारण आदि भी प्रत्यक्ष दिखायी देता है।
कः क्षत्रियकुले जातः श्रुतवान् नष्टसंशयः।
धर्मलिङ्गप्रतिच्छन्नः क्रूरं कर्म समाचरेत्॥२७॥

‘क्षत्रियकुल में उत्पन्न शास्त्र का ज्ञाता, संशयरहित तथा धार्मिक वेश-भूषा से आच्छन्न होकर भी कौन मनुष्य ऐसा क्रूरतापूर्ण कर्म कर सकता है।

राम ने बाली को कुछ इस प्रकार उत्तर दिया –
धर्ममर्थं च कामं च समयं चापि लौकिकम्।
अविज्ञाय कथं बाल्यान्मामिहाद्य विगर्हसे॥४॥

(श्रीराम बोले-) ‘वानर! धर्म, अर्थ, काम और लौकिक सदाचार को तो तुम स्वयं ही नहीं जानते हो। फिर बालोचित अविवेक के कारण आज यहाँ मेरी निन्दा क्यों करते हो? ।
अपृष्ट्वा बुद्धिसम्पन्नान् वृद्धानाचार्यसम्मतान्।
सौम्य वानरचापल्यात् त्वं मां वक्तुमिहेच्छसि॥५॥

सौम्य ! तुम आचार्यों द्वारा सम्मानित बुद्धिमान् वृद्ध पुरुषों से पूछे बिना ही उनसे धर्म के स्वरूप को ठीक-ठीक समझे बिना ही वानरोचित चपलतावश मुझे यहाँ उपदेश देना चाहते हो? अथवा मुझ पर आक्षेप करने की इच्छा रखते हो।
इक्ष्वाकूणामियं भूमिः सशैलवनकानना।
मृगपक्षिमनुष्याणां निग्रहानुग्रहेष्वपि॥६॥
पर्वत, वन और काननों से युक्त यह सारी पृथ्वी इक्ष्वाकुवंशी राजाओं की है; अतः वे यहाँ के पशु-पक्षी और मनुष्यों पर दया करने और उन्हें दण्ड देने के भी अधिकारी हैं।
तां पालयति धर्मात्मा भरतः सत्यवानृजुः ।
धर्मकामार्थतत्त्वज्ञो निग्रहानुग्रहे रतः॥७॥

‘धर्मात्मा राजा भरत इस पृथ्वी का पालन करते हैं। वे सत्यवादी, सरल तथा धर्म, अर्थ और काम के तत्त्व को जानने वाले हैं; अतः दुष्टों के निग्रह तथा साधु पुरुषों के प्रति अनुग्रह करने में तत्पर रहते हैं।
नयश्च विनयश्चोभौ यस्मिन् सत्यं च सुस्थितम्।
विक्रमश्च यथा दृष्टः स राजा देशकालवित्॥८॥

‘जिसमें नीति, विनय, सत्य और पराक्रम आदि सभी राजोचित गुण यथावत्-रूपसे स्थित देखे जायँ, वही देश-काल-तत्त्व को जानने वाला राजा होता है (भरत में ये सभी गुण विद्यमान हैं)।
तस्य धर्मकृतादेशा वयमन्ये च पार्थिवाः।
चरामो वसुधां कृत्स्नां धर्मसंतानमिच्छवः॥९॥

‘भरत की ओर से हमें तथा दूसरे राजाओं को यह आदेश प्राप्त है कि जगत् में धर्म के पालन और प्रसार के लिये यत्न किया जाय। इसलिये हमलोग धर्म का प्रचार करने की इच्छा से सारी पृथ्वी पर विचरते रहते हैं।
तस्मिन् नृपतिशार्दूले भरते धर्मवत्सले।
पालयत्यखिलां पृथ्वी कश्चरेद् धर्मविप्रियम्॥१०॥

‘राजाओं में श्रेष्ठ भरत धर्म पर अनुराग रखने वाले हैं। वे समूची पृथ्वी का पालन कर रहे हैं। उनके रहते हुए इस पृथ्वी पर कौन प्राणी धर्म के विरुद्ध आचरण कर सकता है ? ।
ते वयं मार्गविभ्रष्टं स्वधर्मे परमे स्थिताः।
भरताज्ञां पुरस्कृत्य निगृह्णीमो यथाविधि॥११॥

‘हम सब लोग अपने श्रेष्ठ धर्म में दृढ़तापूर्वक स्थित रहकर भरत की आज्ञा को सामने रखते हुए धर्ममार्ग से भ्रष्ट पुरुष को विधिपूर्वक दण्ड देते हैं।
त्वं तु संक्लिष्टधर्मश्च कर्मणा च विगर्हितः।
कामतन्त्रप्रधानश्च न स्थितो राजवर्त्मनि॥१२॥

‘तुमने अपने जीवन में काम को ही प्रधानता दे रखी थी। राजोचित मार्ग पर तुम कभी स्थिर नहीं रहे। तुमने सदा ही धर्म को बाधा पहुँचायी और बुरे कर्मों के कारण सत्पुरुषों द्वारा सदा तुम्हारी निन्दा की गयी।
तदेतत् कारणं पश्य यदर्थं त्वं मया हतः।
भ्रातुर्वर्तसि भार्यायां त्यक्त्वा धर्मं सनातनम्॥१८॥

मैंने तुम्हें क्यों मारा है? उसका कारण सुनो और समझो। तुम सनातन धर्म का त्याग करके अपने छोटे भाई की स्त्री से सहवास करते हो ।
अस्य त्वं धरमाणस्य सुग्रीवस्य महात्मनः।
रुमायां वर्तसे कामात् स्नुषायां पापकर्मकृत्॥१९॥

इस महामना सुग्रीव के जीते-जी इसकी पत्नी रुमा का, जो तुम्हारी पुत्रवधू के समान है, कामवश उपभोग करते हो अतः पापाचारी हो।
तद् व्यतीतस्य ते धर्मात् कामवृत्तस्य वानर।
भ्रातृभार्याभिमशेऽस्मिन् दण्डोऽयं प्रतिपादितः॥२०॥

‘वानर ! इस तरह तुम धर्म से भ्रष्ट हो स्वेच्छाचारी हो गये हो और अपने भाई की स्त्री को गले लगाते हो। तुम्हारे इसी अपराध के कारण तुम्हें यह दण्ड दिया गया है।
नहि लोकविरुद्धस्य लोकवृत्तादपेयुषः।
दण्डादन्यत्र पश्यामि निग्रहं हरियूथप॥२१॥

वानरराज! जो लोकाचार से भ्रष्ट होकर लोकविरुद्ध आचरण करता है, उसे रोकने या राह पर लाने के लिये मैं दण्ड के सिवा और कोई उपाय नहीं देखता।
न च ते मर्षये पापं क्षत्रियोऽहं कुलोद्गतः।
औरसीं भगिनीं वापि भार्यां वाप्यनुजस्य यः॥२२॥
प्रचरेत नरः कामात् तस्य दण्डो वधः स्मृतः।

मैं उत्तम कुल में उत्पन्न क्षत्रिय हूँ; अतः मैं तुम्हारे पाप को क्षमा नहीं कर सकता। जो पुरुष अपनी कन्या, बहिन अथवा छोटे भाई की स्त्री के पास कामबुद्धि से जाता है, उसका वध करना ही उसके लिये उपयुक्त दण्ड माना गया है।
भरतस्तु महीपालो वयं त्वादेशवर्तिनः॥२३॥
त्वं च धर्मादतिक्रान्तः कथं शक्यमुपेक्षितुम्।
हमारे राजा भरत हैं। हमलोग तो केवल उनके आदेश का पालन करने वाले हैं। तुम धर्म से गिर गये हो; अतः तुम्हारी उपेक्षा कैसे की जा सकती थी।
गुरुधर्मव्यतिक्रान्तं प्राज्ञो धर्मेण पालयन्॥२४॥
भरतः कामयुक्तानां निग्रहे पर्यवस्थितः ।
विद्वान् राजा भरत महान् धर्म से भ्रष्ट हुए पुरुष को दण्ड देते और धर्मात्मा पुरुष का धर्मपूर्वक पालन करते हुए कामासक्त स्वेच्छाचारी पुरुषों के निग्रह में तत्पर रहते हैं।
वयं तु भरतादेशावधिं कृत्वा हरीश्वर।
त्वद्विधान् भिन्नमर्यादान् निग्रहीतुं व्यवस्थिताः॥२५॥

हरीश्वर! हमलोग तो भरत की आज्ञा को ही प्रमाण मानकर धर्ममर्यादा का उल्लङ्घन करने वाले तुम्हारे जैसे लोगों को दण्ड देने के लिये सदा उद्यत रहते हैं।
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आर्येण मम मान्धात्रा व्यसनं घोरमीप्सितम्।
श्रमणेन कृते पापे यथा पापं कृतं त्वया॥३३॥
“तुमने जैसा पाप किया है, वैसा ही पाप प्राचीन काल में एक श्रमण ने किया था। उसे मेरे पूर्वज महाराज मान्धाता ने बड़ा कठोर दण्ड दिया था, जो शास्त्र के अनुसार अभीष्ट था।