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योग-आध्यात्म, ज्योतिष और आयुर्वेद का उद्देश्य एक ही है- मनुष्य को सुख की प्राप्ति कराना और उसके दुखों का निवारण करना। सभी अपने अपने उपागमों से मनुष्य को “सुख” की ही प्राप्ति कराने में संलग्न हैं। लेकिन सुख का आधार क्या है ? महर्षि पतंजलि ने लिखा है -सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः अर्थात व्यक्ति का जन्म, आयु और भोग उसके पूर्व जन्म के कर्मों से ही निर्मित होता है। आयु के बिना भोग सम्भव ही नहीं और आयु स्वास्थ्य के बिना सम्भव नहीं है इसलिए आयुर्वेद में भी कहा गया है -आयु: कामयमानेन धर्मार्थ सुख साधनं अर्थात आयु ही मनुष्य के अर्थ, धर्म और काम (कामसुख) का साधन है। आयुर्वेद ने अर्थ और धर्म का प्रयोजन भी काम में ही माना है। जो व्यक्ति बहुत बीमार रहता है वह सुख से ज्यादा अपने रोग और आयु का चिन्तन करता है क्योकि रोग के रहते तो सुख सम्भव नहीं है। इसी प्रकार जिस व्यक्ति को यह ज्ञात हो जाये कि वह कुछ दिन का ही मेहमान है तो उसके लिए सुख की कल्पना करना कहाँ सम्भव है ! आयुर्वेद आयु (आयुष्य) को बढ़ाने वाली विद्या है इसलिए इसे आयुर्वेद कहते हैं। ज्योतिष शास्त्र ने ब्रह्मविद्या को स्वीकार करते हुए आयु की वृद्धि के लिए धर्म को महत्वपूर्ण माना है। यदि धर्म-कर्म की वृद्धि होगी तो आयु की वृद्धि निःसंदेह होगी क्योंकि कुंडली में अष्टम भाव नवम भाव से द्वादश स्थान पर स्थित है अर्थात आयुष्य की हानि और लाभ धर्म पर आश्रित है। आयुर्वेद की तरह ही ज्योतिष में भी आयुर्दाय और रोग पर विशेष मनन चिन्तन किया गया है।

आयुर्वेद ज्योतिष का बहुत ऋणी है, प्राचीन समय में आयुर्वेद बिना ज्योतिष के एककदम भी नहीं चलता था। लेकिन आधुनिक युग में आयुर्वेद के औद्योगिक हो जाने से ज्योतिष का आयुर्वेद में प्रयोग नाम मात्र का ही रह गया है। अभी भी दक्षिण भारत के आयुर्वेदाचार्य ज्योतिष के अनुसार ही इलाज करते हैं। आयुर्वेद का प्रमुख आधार ज्योतिष था क्योंकि यह मूलभूत रूप से प्रकृति के तीन गुणों पर आधारित है। राशियाँ, ग्रह और नक्षत्र भी त्रिगुणात्मक ही हैं। वात , पित्त और कफ का मूलभूत स्वरूप त्रिगुणात्मक और ज्योतिषीय है। ऋतु भेद से इनसे सम्बन्धित रोगों का ईलाज किया जाता रहा है।

शारंगधर संहिता में कहा गया है कि वात , कफ और पित्त का संचय, कोप और उपशम ऋतुओं के अनुसार होता है, यथा –
ग्रीष्मे संचियते वायु: प्राव्रीटकाले प्रकुप्यति ।
वर्षासु चीयते पित्तं शरत्काले प्रकुप्यति । ।
हेमन्ते चीयते श्लेष्मा वसन्ते च प्रकुप्यति ।
प्रायेण प्रशमं याति स्वयमेव समीरण: ।
शरत्काले वसन्ते च पित्तं प्रावृडतौ कफ: ।।
सभी ऋतुओं के नवग्रह शासक है इसलिए वात-पित्त-कफ जनित दृष्ट रोग हो या अदृष्ट रोग हों जिन्हें क्रमश: कर्मज और दोषज कहा गया है –  (1) कर्मज अर्थात जो दुष्कर्म के परिणाम स्वरूप फलित होती है तथा भोग/प्रायश्चित से उनका विनाश होता है। (2) इसके विपरीत दूसरे प्रकार की दोषज व्यधियाँ हैं जो मिथ्या आहार-विहार करने से कुपित हुए बात, पित्त एवं कफ से होती है। सभी नवग्रहों द्वारा ही जनित हैं  और उनके द्वारा इनका शमन सम्भव है। पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाली सभी औषधियां नवग्रहों, सताईस नक्षत्रों और बारह राशियों से सम्बन्धित हैं। अच्छा आयुर्वेदाचार्य वही हो सकता है जिसको ज्योतिष का अच्छा ज्ञान हो .. कब दवा लेनी चाहिए ? आयुर्वेद में इसके लिए भी शुभ समय और मुहूर्त की जरूरत है।