
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।।
मैं अजन्मा और अविनाशी-स्वरूप होते हुए भी तथा सम्पूर्ण प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ।
देवकीकृत श्री कृष्ण जन्म स्तुतिः
रूपं यत्तत्प्राहुरव्यक्तमाद्यं ब्रह्मज्योतिर्निर्गुणं निर्विकारम् ।
सत्तामात्रं निर्विशेषं निरीहं स त्वं साक्षाद्विष्णुरध्यात्मदीपः ॥ १॥
प्रभु ! वेदों ने आपके जिस रूप को अव्यक्त और सबका कारण बतलाया है, जो ब्रह्म, ज्योतिःस्वरूप, समस्त गुणों से रहित और विकारहीन है, जिसे विशेषणरहित-अनिर्वचनीय, निष्क्रिय एवं केवल विशुद्ध सत्तामात्र कहा गया है -वही बुद्धि आदि के प्रकाशक बिष्णु आप स्वयं हैं.
नष्टे लोके द्विपरार्धावसाने महाभूतेष्वादिभूतं गतेषु ।
व्यक्तेऽव्यक्तं कालवेगेन याते भवानेकः शिष्यते शेषसंज्ञः ॥ २॥
जिस समय ब्रह्मा की पूरी आयु -दो परार्ध समाप्त हो जाते हैं, काल शक्ति के प्रभाव से सारे लोक नष्ट हो जाते हैं, पंचमहाभूत अहंकार में, अहंकार ममहततत्व में और महत तत्व प्रकृति में लीन हो जाते हैं -उस समय एकमात्र आप का अस्तित्व रहता है. इस कारण आपको ‘शेष’ भी कहा जाता है.
योऽयं कालस्तस्य तेऽव्यक्तबन्धोश्चेष्टामाहुश्चेष्टते येन विश्वम् ।
निमेषादिर्वत्सरान्तो महीयांस्तं त्वीशानं क्षेमधाम प्रपद्ये ॥ ३॥
प्रकृति के एक मात्र सहायक हे प्रभु ! निमेष से लेकर वर्ष पर्यन्त अनेक विभागों में विभक्त जो काल है, जिसकी चेष्टा से सम्पूर्ण विश्व सचेष्ट हो रहा है और जिसकी कोई सीमा नहीं है, वह सब आपकी लीला मात्र है. आप सर्वशक्तिमान और परम कल्याण के आश्रय हैं. मैं आपकी शरण लेती हूँ.
मर्त्यो मृत्युव्यालभीतः पलायन्सर्वांल्लोकान्निर्वृतिं नाध्यगच्छत् ।
त्वत्पादाब्जं पाप्य यदृच्छयाद्य स्वस्थः शेते मृत्युरस्मादपैति ॥ ४॥
प्रभु ! यह जीव नित्य मृत्युग्रस्त हो रहा है. यह मृत्युरूप कराल व्याल से भयभीत होकर सम्पूर्ण लोक लोकान्तरों में भटकता रहता है; परन्तु इसे कभी कहीं भी ऐसा स्थान न मिल सका, जहाँ यह निर्भय होकर रहे. आज बड़े भाग्य से आपके चरण कमलों की शरण मिल गई है. अत: अब यह स्वस्थ होकर सुख की नींद सो रहा है. औरों की तो बात ही क्या, स्वयं मृत्यु भी इससे भयभीत होकर भाग रही है.
स त्वं घोरादुग्रसेनात्मजान्न- स्त्राहि त्रस्तान् भृत्यवित्रासहासि ।
रूपं चेदं पौरुषं ध्यानधिष्ण्यं मा प्रत्यक्षं मांसदृशां कृषीष्ठा: ॥ 5 ॥
प्रभु! आप भक्तों का भय हरने वाले हैं और हम लोग इस दुष्ट कंस से बहुत ही भयभीत हैं. अत: आप हमारी रक्षा कीजिये. आपका यह चतुर्भुज शंख गदाधारी रूप ध्यान की वस्तु है. इसे देहाभिमानी पुरुषों के समक्ष मत प्रकट कीजिये.
जन्म ते मय्यसौ पापो मा विद्यान्मधुसूदन ।
समुद्विजे भवद्धेतो: कंसादहमधीरधी: ॥ ६ ॥
हे मधुसूदन ! इस पापी कंस को यह मालूम न हो कि आपका मेरे गर्भ से जन्म हुआ है. आपके लिए मैं कंस से बहुत भयभीत हूँ.
उपसंहर विश्वात्मन्नदो रूपमलौकिकम् ।
शङ्खचक्रगदापद्मश्रिया जुष्टं चतुर्भुजम् ॥ 7 ॥
विश्वात्मन ! आपका यह रूप लौकिक है. आप अपना यह शखं, चक्र, गदा, और कमल की शोभा से युक्त यह रूप छुपा लीजिये.
विश्वं यदेतत् स्वतनौ निशान्ते
यथावकाशं पुरुष: परो भवान् ।
बिभर्ति सोऽयं मम गर्भगोऽभू-
दहो नृलोकस्य विडम्बनं हि तत् ॥ 8 ॥
प्रलय के समय सम्पूर्ण जगत को आप अपने शरीर में स्वाभाविक रूप से धारण करते हैं.. वही परम पुरुष परमात्मा आप मेरे गर्भ में प्रविष्ट हुए हैं, यह मनुष्य लोक में आपकी अद्भुत लीला नहीं तो क्या है ?
॥इति श्रीमद्भागवते दशमस्कन्धे देवकीकृता स्तुतिः॥