
भज गोविन्दम् एक उपदेशपरक रचना है. इस सुंदर रचना की कथा कुछ इस तरह है- भगवदपाद आदि शंकर काशी (बनारस) की अपनी प्रसिद्ध तीर्थयात्रा के दौरान गलियों से जब गुजर रहे थे तो उन्हें एक वृद्ध ब्राह्मण को संस्कृत व्याकरण के सूत्र रटते हुए देखकर बहुत दुख हुआ.आचार्य ने उस ब्राह्मण को उपदेश किया कि हे मूढ़मति ! गोविन्द का नाम स्मरण करो. मृत्यु के समय व्याकरण के सूत्र रटने से आपकी रक्षा नहीं हो सकती है. जीवन के इस अंतिम चरण में जो शेष मूल्यवान समय बचा हुआ है, उसे व्याकरण सीखने में बर्बाद करने के बजाय भगवान की पूजा और ध्यान के लिए इस्तेमाल करना ज्यादा बुद्धिमत्ता है.
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्, गोविन्दं भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते काले, न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे॥
हे मोह से ग्रसित मानव, गोविंद को भजो, गोविन्द को भजो, गोविन्द का ही नाम लो, क्योंकि मृत्यु के समय व्याकरण के सूत्र याद रखने से आपकी रक्षा नहीं हो सकती है॥
शिष्यों ने उनके इस उपदेश को सुंदर श्लोकों में लिख लिया. यही ‘भज गोविन्दम्’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ. ‘भज गोविन्दम्’ को ‘मोहमुद्गर’ यानि ‘भ्रम-नाशक मुद्गर’ भी कहा जाता है.
‘भज गोविन्दम्’ मूल रूप में 12 श्लोकों का ही उपदेश है जैसा श्लोक में कहा गया है-
द्वादशमंजरिकाभिरशेषः कथितो वैयाकरणस्यैषः।
उपदेशोऽभूद्विद्यानिपुणैः, श्रीमच्छंकरभगवच्चरणैः॥
बारह गीतों का ये उपदेशपरक पुष्पहार, सर्वज्ञ प्रभुपाद श्री शंकराचार्य ने एक वैय्याकरण को प्रदान किया॥
मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह उपदेश न केवल वैय्याकरणों को दिया गया है बल्कि उन पाशुपत शैवों को भी निर्देशित है जो डुकृञ् करण करते रहते थे. डुकृञ् करण पाशुपतों की चर्या का हिस्सा था. “डुकृञ् करणं डुंडुंकार:” ऐसा उनका मत है. यह डुकृञ् करण जिह्वाग्र-तालु के संयोग से निकालते थे. यह ध्वनि कुछ बैल के डुंडुंकार की तरह निकलती थी. इसे पाशुपत पुण्य कहते थे. जितना डुंडुंकार निकाल लो उतना ही पुण्य और उसी अनुरूप शिव लोक की प्राप्ति. यदि ‘भज गोविन्दम् ‘ का उपदेश काशी में हुआ जहाँ इनका गढ़ था तो यह निःसंदेह उनकी तरफ निर्देशित आवश्य था कि हे पाशुपतों ! यह बैलों की तरह डुंडुंकार ध्वनि निकालने से मुक्ति नहीं होती, ईश्वर के स्मरण से मुक्ति होती है.
आदि शंकराचार्य भक्ति के उपदेशक नहीं थे, उनके भगवद्गीता भाष्य से भी यह स्पष्ट होता है. लेकिन अपने जीवन के अंतिम कुछ वर्षों में उन्होंने भक्ति का भी उपदेश किया और कुछ सुंदर स्तोत्रों की रचना की. गोविन्द श्री कृष्ण उनके कुल देवता थे और उनकी माता के ईष्ट देवता भी थे. आदि शंकराचार्य ने पहला ऋग्वेदस्वरूप पुर्वाम्नाय गोवर्धन मठ गोविन्द को ही समर्पित किया. मठ में उनके द्वारा स्थापित प्राचीन काले पत्थर का श्री कृष्ण का विग्रह मौजूद है.