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सनातन वैदिक धर्म के असली ध्वज वाहक वेदांती ही हैं इसमें कोई संदेह नहीं है. इन वेदान्तियों में वैष्णव भी शामिल किये जा सकते हैं क्योंकि वैष्णव वेदांती भी मूलभूत रूप से वैदिक धर्म के ही ध्वजा वाहक रहे हैं. भारत में अनेक मत और सम्प्रदाय सनातन काल से स्वतंत्र रूप से विकसित होते रहे हैं. इन सम्प्रदायों में लिंग पूजा सबसे प्राचीन और प्रिमिटिव है. सृष्टि के उत्पत्ति की प्रिमिटिव संकल्पना कि सृष्टि योनि-लिंग से ही प्रकट हुई कालान्तर में शैव सम्प्रदाय के रूप में विकसित हो गया. सिन्धु घाटी की सभ्यता में पशु पूजा के साथ लिंग पूजा का एक प्रिमिटिव रूप प्राप्त होता है. हडप्पा की पशुओं के सींग वाली पुजारी की इमेज या मुखिया की इमेज उस समय पशुपूजा के व्यापकता को ही दर्शाता है. ये प्रिमिटिव रूप ही कालान्तर में पाशुपत सम्प्रदाय के रूप में विकसित हुए. वैदिक संस्कृति बहुत उन्नत संस्कृति थी. वैदिक संस्कृति के विकास और विस्तार में इन्हें प्रिमिटिव्स से काफी जूझना पड़ा था. वैदिक धर्म के विस्तार में अनेक मत मतान्तरों के बीच सामंजस्य कैसे बने ? यह सदैव एक बड़ी समस्या थी. वैदिक आचार्यों ने इस संघर्ष को खत्म करने के लिए प्रयत्न शुरू किया. ऐसा पहला प्रयत्न महर्षि वादरायण ने ब्रह्मसूत्र लिख कर किया था. यह सनातन धर्म के इतिहास में पहला सबसे बड़ा सामंजस्य का उद्योग था. यदपि कि इससे पूर्व वैदिक रूद्र के रूप में लिंग पूजक शैवों को समाहित कर सामजस्य बना लिया गया था लेकिन यह काफी प्रिमिटिव सम्प्रदाय था इसलिए सामंजस्य इतना आसान नहीं था. इस सामजस्य का उद्योग को फिर अन्य शक्ति, पराशर आदि ऋषियों ने भी आगे बढ़ाया लेकिन महत्वपूर्ण कार्य महर्षि वेदव्यास ने किया और सामंजस्य बनाने का उद्योग कर संघर्ष को काफी कम कर दिया. लेकिन लिंग-पूजक शैव प्राकृतिक रूप से तमोगुणी होने से अक्सर विनाशक बन जाते थे. पाशुपत धर्म के बाद शैव धर्म के अनेक सम्प्रदायों और कल्ट का विनाशक अध्याय हैं. शैवों में कापालिक, कालमुख इत्यादि बड़े विनाशक कल्ट थे. सभ्य समाज इनसे अक्सर पीड़ित होता रहा था. इनके फ़ॉलोवर ही रामायण और पुराण इत्यादि में दैत्य-दानव कहे गये हैं.

अजएकपाद लेख में इसकी थोड़ी झलक आपको मिल सकती है. आदि शंकराचार्य ने वेदव्यास की परम्परा को आगे बढ़ाया. आदि शंकराचार्य ने मतान्तरों का सामंजस्य स्थापित किया और पंचदेवोपासना को सनातन धर्म का आवश्यक अंग बना दिया. उनके उपनिषदों के भाष्य में अद्वैत की स्थापना में पुष्टि के लिए आपको शैव सम्प्रदाय के ग्रंथों का उद्धरण शायद ही मिले, शायद इसलिए कि उनकी नजर में भी शैव मत हेय आवश्य था. उन्होंने अद्वैत की स्थापना विशुद्ध वैदिक श्रुतियों द्वारा ही की थी. ब्रह्मसूत्र भाष्य में जहाँ शैव- पाशुपत मत इत्यादि का उद्धरण है वहां उनका सम्पूर्ण रूप से नेगेशन है और वैदिक उपनिषद प्रतिपादित धर्म की ही स्थापना है. ऐसा इसलिए है क्योंकि ब्रह्मसूत्र में यही स्थापना की गई है और भगवद्गीता में यही कहा है –
ऋषिभिर्बुधा गीतं छन्दोभिर्विविधैः पृथक्करण।
ब्रह्मसूत्रपादैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितैः।।13.5।।

सर्वदर्शन संग्रह में प्राचीन शैव दर्शन और शैव मत के पाशुपत-नकुलीश को भारत में उपलब्ध 15 दर्शनों में एक दर्शन के रूप में ही लिया गया है. पाशुपत होठ फडफडा कर दैत्यों की तरह अट्टहास करते थे. बैल की तरह हुडुंकार करते थे. औरत को देख लिंग दिखाना या कामुक की तरह बर्ताव करना, उन्मत्त के समान लोक निन्दित कर्म करना, पागलों के समान शब्द उच्चारण करना और उसी तरह व्यवहार करना. स्वेछाचारी बन भभूती लगाये, गाल बजाते पिसाचवत विचरण करो, यही पाशुपत मुक्ति का मार्ग था.

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पाशुपत मत के बाद शैव मूलभूत रूप से तांत्रिक स्वरूप में प्रकट हुए. पाशुपत के उपरांत जितने शैव सम्प्रदाय विकसित हुए सब मूलभूत रूप से तांत्रिक सम्प्रदाय ही हैं. आप इन तांत्रिकों के दर्शन को गुह या गुहा दर्शन कह सकते हैं. उत्तर शैवों ने तो स्त्री के पेशाब की सुsसु ध्वनि को मन्त्र कहा और बोले इसे कान लगा कर सुनने से मुक्ति होती है. सद्गुरु कोई दार्शनिक तो है नहीं तो उसने इसी चुतांग दर्शन के अनुसार योनि-लिंग की वल्गर छवि बना डाली. शैव धर्म उत्तरोत्तर थोड़ा सभ्य अवश्य हुआ लेकिन मूलभूत रूप से श्मशानवासी, रौद्र रूप शिव की इमेज प्रभावी रही. शैव निएंडरथल प्रिमिटिव बने रहे, बहुत आगे नहीं बढ़ पाए. शैव कोई मत हो ये अक्सर रह रह कर उन्मत्त हो जाते हैं और विनाशक बन जाते हैं. मध्य युग का अंध युग में तांत्रिक वैष्णव और शैवों के बीच अलग ही युद्ध रहा, कभी यह सामाजिक-राजनीतिक वर्चस्व को लेकर हुआ तो कभी इमेज वार भी हुआ. वैष्णवों ने पुराणों में तांत्रिक नृसिंह अवतार निकाला तो शैवों ने अपने पुराण में खतरनाक पक्षी शरभ प्रकट कर दिया. और मजेदार बात ये रही कि पटकापटकी होने लगी. श्री लंका के मुन्नेश्वरम मंदिर में शरभ रूपधारी शिव, नरसिंह रूपी विष्णु को पटकनी देते हुए दिखे.

लेकिन बात सिर्फ शैव-वैष्णव तक ही नहीं रही. बौध तांत्रिक भी बहुत विचरण करते थे. बौधों को वेदांत के आचार्यों और अनुयायियों ने मिलकर खदेड़ तो दिया लेकिन वे कम नहीं थे. असली मूर्ति निर्माता तो वही थे, वे ही पायनियर थे. आदि शंकराचार्य के द्वारा दंड से भगाए जाने के बाद राज-पाठ खोने से तांत्रिक बौध बड़े क्रोधित हुए. उन्होंने तिब्बत की गुफाओं में जाकर हिन्दुओं के सभी देवताओं को अपने विकराल भैरव के कदमों से कुचलवा दिया. यह यामंतक भैरव साक्षात् यम था, इसके कदमों के नीचे शिव, विष्णु, ब्रह्मा, इंद्र इत्यादि सब देवता दब कर त्राहि-त्राहि करने लगे. यह धार्मिक मूर्तियों का अद्भुत युद्ध था या की लीला थी.



इन सबसे परे विशुद्ध सत्व में स्थित वेदांत सब दर्शनों का राजा है, इसका सृष्टि के प्रारम्भ में उपदेश किया गया था “वेदान्ते परमं गुह्यं पुराकल्पे प्रचोदितम्‌।” इसलिए यह शिरमौर माना गया है. वेदांत सबकी परकाष्ठा है, इससे आगे नहीं जाया जा सकता है. यह सबका अंत है, सबका सम्हार रूप है.

तमेव विदित्वातिमृत्युमेति
नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥ – श्वेताश्वतरोपनिषत्
वेदांत के इतर ईश्वर उपलब्धि का कोई दूसरा मार्ग ही नहीं है.