
हिन्दू धर्म या सनातन धर्म के सभी प्रमुख शास्त्र विशेष रूप से आगम ग्रन्थ पशुओं के उद्धार के लिए ही कहे गये हैं. मनुष्य जन्म लेता है लेकिन वह मूलभूत रूप से पशु के रूप में ही जन्म लेता है, ऐसा ऋषियों का मानना था. इस पशु के सन्दर्भ में ही द्विज का दार्शनिक सिद्धांत निहित है. पशु वृत्ति मनुष्य में प्रमुख रूप से हावी रहती है जिसके कारण वह हिंसा, मारकाट तक करता है. यदपि पशु जाति में भी पशु आपस में भोजन या मादा के लिए युद्ध करते देखे जाते हैं लेकिन मनुष्य पशुओं से ज्यादा हिंसक और क्रूर है. मनुष्यों की इन पशु वृत्तियों के कारण ही हिन्दू धर्म के ग्रन्थ इस प्रकार शुरू होते हैं –

यहाँ मनुष्य को जन्तु संबोधन किया गया है. ये जन्तु प्रकृति के वशीभूत होकर स्वभावनुसार तत्त कर्म करते हैं और इनमें ज्यादातर अशुभ कर्म ही करते हैं क्योंकि ज्यादातर मनुष्य निम्न प्रकृति के साथ पैदा होते हैं. उनकी निम्न प्रकृति के कारण न केवल उन्हें क्लेश मिलता है बल्कि वे अन्यों के क्लेश का कारण भी बन जाते हैं. पाशुपत शैव सम्प्रदाय भी पशु और पशुपति का मोटा मोटा विभाजन है. सभी जन्तु 5 प्रकार के पाशों में बंधे हुए पशु हैं और एक उनका स्वामी है- पशुपति. इसका आधार मूलभूत रूप से सांख्य दर्शन ही है जो पुरुष को प्रकृति द्वारा बंधा हुआ कहता है और उसको भोग मोक्ष दोनों का कारण मानता है.
कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते।
पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते।।
क्लेशपूर्ण सभी वृत्तियाँ ही पाश हैं. ये सब विकार प्रकृति से उत्पन्न होते हैं. गीता कहती है. कार्य और करणके द्वारा होनेवाली क्रियाओंको उत्पन्न करनेमें प्रकृति हेतु कही जाती है और सुखदुःखोंके भोक्तापनमें पुरुष हेतु कहा जाता है.
भगवद्गीता में इसका विशद विवेचन हुआ है. यह लेख इसका विवेचन के लिए नहीं है, इस तथ्य को बताने के लिए लिखा गया है कि मनुष्य मूलभूत रूप से जन्तु है और पापी भी उसी प्रकार से है. यह पाप के कंसेप्ट का सनातन धर्म में उतना अतिरेक नहीं हुआ है लेकिन ईसाई धर्म में सब पापमय ही है. ईसाई मूलभूत रूप से एक पाप पुरुष होता है. मनुष्य की इस पशुता में उसका कर्ज भी बहुत बड़ा है. आधुनिक दर्शनों में भी यह पशु का सिद्धांत काफी प्रभावी रहा है. मनुष्य के पशु का यह सन्दर्भ पूंजीवाद के बाजार के सिद्धांत में भी गहरे अनुप्रविष्ट है और आदर्श पूंजीवाद में पूर्ण पशुता व्याप्त हो जाती है जैसे अमेरिका में व्याप्त है. इस पूंजीवाद के अंतिम स्वरूप की चर्चा अनेक विचारकों ने जर्मन दार्शनिक हेगेल के दर्शन पर चर्चा में की है. भगवद्गीता कहती है कि यह माया बड़ी दुस्तर है और जो ईश्वर की शरण जाता है वही इससे पार हो पाता है.

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।
लेकिन एक वर्ग बहुत बड़ा पशु है परन्तु सदैव इस माया से परे रहा है और बहुधा इस सिद्धांत के प्रवर्तकों को वश में रखता रहा है. उनकी माया से बहुसंख्यक वर्ग पशु बना हुआ है और उनके द्वारा उनका भक्षण किया जाता रहा है. हम आगे इन विषयों पर भी चर्चा करेंगे और इसके आध्यात्मिक स्वरूप पर भी चर्चा करेंगे.
यह एक बड़ा विषय है जिस पर बाबा /स्वामी तो चर्चा नहीं ही करेंगे बल्कि भटकायेंगे. लेकिन हमें जब जब समय मिलेगा इन इन विषयों पर चर्चा अवश्य करेंगे. यहाँ यह संक्षिप्त भूमिका इसीलिए दी गई है. आप भी इस पर विचार करें.