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इतिहास के मिथकीकरण से हिन्दुओं का सर्वथा नाश हुआ यह कई तरह से सिद्ध किया जा सकता है. मिथकीकरण से न केवल हिन्दुओं की चेतना कुंद हुई बल्कि वह अनेक तरह के मिथ्या भ्रम का शिकार हुआ, उसकी स्व-सम्बोधि जाती रही. मिथकीकरण को वैष्णवों ने पुराणों में उड़ान दिया जिसका अन्य शैव, शाक्त इत्यादि प्रमुख सम्प्रदायों ने भी अनुगमन किया. यह हिन्दू बाबाओं और महात्माओं की आदत में शुमार हो गया. यदि आप पतंजलि के योगसूत्र को पढ़ें तो उनके दर्शन में यह विकल्प और संजल्प मानसिक बीमारी है, इससे चित्त में प्रकाश की उपलब्धि नहीं होती. इसको एक उदाहरण से समझने की कोशिस करते हैं. आदि शंकराचार्य ने अपने जीवन काल में वेदांत की प्रस्थापना के क्रम में अनेक मतों को पराजित किया और अनेक सम्प्रदायों के साथ एक तरह से युद्ध भी किया. जिस समय आदि शंकराचार्य उड़ीसा में निवास कर रहे थे उस समय उन्होंने शैव तांत्रिक कापालिकों से लड़ाई लड़ी. यह लड़ाई कर्नाटक में जाकर खत्म हुई. इतिहास के इस पन्ने को शंकर दिग्विजय में मिथकीकरण करके लिखा गया. यहाँ यह नहीं लिखा गया कि कापालिकों के घोर कृत्यों से समाज पीड़ित था और इसके लिए शंकर को लड़ाई लडनी पड़ी. इस घटना का मिथकीकरण किया गया कि कापालिक महाकाल या अमर होने की सिद्धि कर रहा था और उसके लिए उसे या तो राजा की बलि करनी थी या शंकर जैसे आचार्य की बलि करनी थी. उसे राजा का सिर तो नहीं मिल सकता था तो एकदिन वह ध्यानस्थ आदि शंकर का सिर मांगने आ गया. वह भीषण कापालिक बहुत डरावना और विशाल था. उसने आदि शंकर से अपनी बात कहीं “हे ब्राह्मण, परम सिद्ध आचार्य ! हमें सिद्धि के लिए आपका सिर चाहिए. आप श्रेष्ठ विद्वान् हैं, आप हमारी ईच्छा अवश्य पूर्ण करेंगे” आदि शंकर ने उसे वचन दिया कि अगले दिन जब वे ध्यानस्थ हों तब आकर उनका सिर ले जाये. दूसरे दिन जब आदि शंकर ध्यानस्थ हुए तब वह कापालिक खप्पर और खड्ग लिए आ पहुंचा. यह सब थोड़ी दूर जंगल में ध्यान कर रहे शंकर के प्रिय शिष्य सुरेश्वरचार्य ने देख लिया. गुरु पर आई ऐसी विपत्ति को देख उन्होंने नृसिंह भगवान का रूप धारण किया और उस स्थान पर प्रकट हो गये, उन्होंने अपने नखों से उसका सीना विदीर्ण कर दिया और गुरु की जान को बचाया. सुरेश्वराचार्य नृसिंह के बड़े उपासक, यह देवता उन्हें सिद्ध थे. इस मिथकीकरण से जनता के भीतर उस वक्त के धार्मिक इतिहास की क्या समझ हो सकती है? ऐसी कथा सुनने से इतिहास का बोध नहीं होता है.

यही स्थिति चैतन्य महाप्रभु के चैतन्य चरितामृत की है जहाँ पौराणिक मिथकीकरण अपने सबसे भद्दे रूप में प्रकट है. इस मिथकीकरण से इतिहास का बोध नहीं होता और ना ही चैतन्य महाप्रभु के वास्तविक आध्यात्मिक स्वरूप का बोध होता है. पढने के बाद आपके समक्ष एक ऐसे व्यक्ति की तस्वीर उभरती है जो पुराण की कहानियों को जीता है और उसका विभिन्न प्रकार से अभिनय करता है. वह कहीं भी किसी छवि, कोई कहानी सुन कर हाथ उठा कर “हा कृष्ण” कहकर पिछाड़ खा कर गिर पड़ता है. इसे भाव समाधि कहकर प्रचारित किया जाता है जबकि यह एक मानसिक विकार है. एक इतिहास पुरुष के मिथकीकरण के कारण ही एक मिथ्या प्रतीति हो रही है.

चैतन्य चरितामृत में भागवत पुराण और अन्य गर्ग इत्यादि संहिताओं में वर्णित कृष्ण की लीलाओं का उनके चरित्र पर अध्यारोप ही नहीं किया गया है बल्कि उसका अतिरेक कर दिया गया है. बाल्य लीला में “ठुमक चलत रामचंद्र बाजत पैजनिया” टाईप लीला है. आश्चर्यजनक रूप से गौणीय सम्प्रदाय के पौराणिक धूर्तों ने चैतन्य भागवत लिख कर पौराणिक गपोड़शंख को और भी विकृत बना दिया है. इस गौडीय किताब में निमाई अर्थात चैतन्य से सम्बन्धित हर कोई अवतार है. तमाशा तो तब है जब फूफा के फूफा की बीवी भी वृन्दावन की कोई गोपी बन कर अवतरित है और कृष्ण बने चैतन्य उसे पहचानते हैं. बाल्य लीला में एक दिन सर्प घर में निकला और बच्चे को कुंडली मार कर लपेट लिया लेकिन वो कृष्ण की तरह सर्प पर लेट गया. सर्प भगवान समझ छोड़ कर भगा. बैकुंठ नाथ के लिए मोहल्ले की सारी कन्याएं गोपियाँ हैं और सारे बाल गोप हैं. बैकुंठ नाथ कन्याओं के वस्त्र चुराते हैं और कहते हैं मैं तुझसे ब्याह रचाउंगा. “प्रभु देखि मात्र जन्मे सभार साध्वस/ नवद्वीपे हेन नाहिं जे ना हए वश ” नवद्वीप में कोई लडकी नहीं थी जो प्रभु बैकुंठ नाथ को देख कर वशीकृत न हो. इसप्रकार भागवत में वर्णित लीलाओं का अतिरेक किया गया है. सभी कृष्ण लीला के बाद अंत में बालक कीर्तनियां बनता है जबकि कृष्ण कीर्तनियां नहीं थे. यह अंतर है.

ऐसी पौराणिक गपोड़शंख से निर्मित वृत्ति से कोई भी मुक्त नहीं हो सकता है, उसे मोक्ष नहीं मिल सकता, भले ही वह एक बढिया कलाकार बन जाये या एक विदूषक बन जाये या स्वांग रचा कर मनोरंजन करने वाला बन जाये या एक मनोरंजन करने वाला कथाकार बन जाये. इस पौराणिक परम्परा में ज्यादातर की नियति यही होती है, वह एक परवर्ट मनुष्य बन जाता है, वह कथाओं के अनुसार अनेक तरह की फैंटेसी में जीने लगता है. पौराणिक बैकुंठ एक फैंटेसी लैंड है जहाँ उसी तरह के पौराणिक लोग प्रवेश करते हैं. जो सबसे ज्यादा लीला में परवर्ट कलाकार होता है वह पार्षद बन जाता है. भागवत में वर्णन है कि उद्धव पार्षद बन कर वृन्दावन में सारे रंगीन कार्यक्रम का आयोजन करते हैं. वैष्णव रंगीन होते हैं. कोई कोई पार्षद को गली पर निगरानी का काम सौप दिया जाता है ताकि कोई अवांछित तत्व लीला में बिघ्न न डाले. बड़े बड़े मन्दिर बना कर लीला और दुराचार के लिए बैकुंठ ही तो बनाते हैं. ISKCON वालों की लीला देखो, बच्चियों का भी बलात्कार कर डालते हैं. यह पौराणिक मिथकीकरण जब दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में अपने चरम पर पहुंचा तब भारत के हिन्दू मुक्त नहीं हुए, गुलाम हो गये.


इस विषय को आगे दूसरे चरण में विस्तार देंगे. अभी के लिए इतना ही.