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भागवत आदि पुराणों में ही वर्णित है कि कलियुग में आश्रम अधर्म के घर बन जायेंगे. सन्यासी कामनाओ के वशीभूत गृहस्थों की तरह ही धन, वाहन, स्त्री के लिए दिन रात मेहनत करेगा. यति धर्म के स्वरूप का शास्त्रीय प्रकाशन न करके यहाँ पुराणों में वर्णित सन्यास या यति धर्म का वर्णन किया जाता है. यह उन पर भी लागू होता है जिन्होंने वानप्रस्थ में प्रविष्ट होकर सन्यास लिया है. मनुष्य को सन्यास तभी ग्रहण करना चाहिए जब उसे उत्कट वैराग्य हो. सन्यास ग्रहण करने के बाद सन्यासी सर्वत्र अकेला ही विचरण करे. भोजन प्राप्ति के लिए ही शहर या ग्राम में प्रविष्ट करे. शरीर के प्रति सदैव उपेक्षा का भाव रखे. अन्न आदि का संग्रह न करे. मननशील रहे, ज्ञान सम्पन्न होवे. कपाल (मिट्टी आदि के खप्पर ) ही भोजन पात्र हो, वृक्ष की जड़ ही निवास स्थान हो, लंगोटी या कौपीन के लिए एक वस्त्र हो, कोई सहायक सेवक न हो तथा वह सबके प्रति समता रखे. अर्थात वह किसी से घृणा न करे. न तो वह मरने की ईच्छा करे और न जीने की ईच्छा ही करे -जीवन और मृत्यु में किसी का अभिनन्दन न करे. जहाँ तक सम्भव हो वह हिंसा न करे, अहिंसा का व्रत धारण करे. सत्य से पवित्र की हुई वाणी बोले. मन से गुण-दोषों का विचार करके ही कोई कार्य करे.

लौकी, काठ, मिट्टी तथा बांस -ये ही सन्यासी के पात्र हैं. जब ग्रहस्थो के घर से धुंआ निकलना बंद हो जाये, मुसल रख दिया गया हो, आग बुझ गई हो, घर के लोग भोजन कर चुके हों, जूठे बर्तन फेंक दिए गये हों, ऐसे समय में सन्यासी को भिक्षा के लिए ग्राम में प्रविष्ट करना चाहिए. भिक्षा पांच प्रकार की कही गई है – मधुकरी ( अनेक घरों से थोड़ा थोड़ा भिक्षा मांग लाना), असंक्लिृप्त ( जिसके विषय में कोई संकल्प या निश्चय न किया गया हो , ऐसी भिक्षा ), प्राक्प्रणीत ( पहले से तैयार करके रखी हुई भिक्षा), अयाचित (बिना मांगे जो अन्न प्राप्त हो ), और तत्काल उपलब्ध ( भोजन के समय स्वत: प्राप्त ) अथवा करपात्री होकर रहे अर्थात हाथ की हथेली में जितना आ जाये उतना करे और हाथ से ही जल पिए किसी बर्तन का प्रयोग न करे. सदैव मनुष्यों की कर्म दोष से प्राप्त होने वाले दुखों, यातनाओं और मृत्यु का चिन्तन करे. जिस किसी आश्रम धर्म का मनुष्य अंगीकार करे, उस आश्रम के धर्म का पालन करे. सन्यासी को सभी भूतों के हित में ही चिन्तन करना चाहिए, सबमे समभाव रखना चाहिए. सन्यासी को जीवन की अनित्यता तथा, नश्वरता का सतत मनन और चिन्तन करते रहना चाहिए.

धृति, क्षमा, दम (मनोनिग्रह), अचौर्य, बाहर भीतर से पवित्र रहना, इन्द्रियों को वश में रखना, विद्या, सत्य और अक्रोध (क्रोध न करना ) -ये धर्म के दस लक्षण हैं जिनका सन्यासी पालन करे. अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह अर्थात कुछ भी संग्रह न करना -ये पांच यम हैं. शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर की आराधना -ये पांच नियम हैं. योगयुक्त सन्यासी के लिए उपरोक्त सबका पालन अनिवार्य है. अष्टांगयोग का अभ्यास करते हुए उसे सदैव ब्रह्म के चिन्तन में लगे रहना चाहिए.

पुराणों में ही ये मोटी मोटी बातें सन्यासी के लिए बतलाई गई हैं जो वर्तमान में ज्यादातर बाबाओं में नहीं दिखता. सन्यास धर्म की भिक्षुकोपनिषद, अवधूतोपनिषद, जाबालोपनिषद, कठरुद्रोपनिषद, कुण्डिका उपनिषद इत्यादि जो उपनिषदें हैं उनमे तो सन्यास धर्म और भी कठिन बतलाया गया हैं. गीता में लिखा है “मम माया दुरत्यया” माया बहुत दुस्तर है, उससे मुक्ति के लिए बहुत प्रयत्न करना पड़ता है. जो मनुष्य ईश्वर की पूर्ण शरणागति लेता है वही मुक्त होता है. सन्यास धर्म पूर्ण शरणागति है. सन्यास में धर्म के कठोर आचरण द्वारा साधक माया के प्रभाव से बच जाता है, उसका चित्त दूषित नहीं होता. जबकि वर्तमान में सन्यासी रूप धारण किये हुए बाबा/स्वामी उसी प्रकार से सांसारिक वासनाओं की तरफ भाग रहे हैं जैसे कोई अज्ञानी भागता है. इन बाबाओं में बहुसंख्यक तो राजनीति करते हैं, अनेक अति घृणित हैं और आतंकवादियों की तरह ‘सिर तन से जुदा” का आह्वान करते हैं और कुछ दूसरे हैं जो रूपये कमाने के अनेक उपाय करते रहते हैं. अनेक बाबाओं ने आश्रम में उद्योग लगा लिया है.


इसी रामभद्राचार्य को देख लीजिये, त्रिदण्ड लेकर चलता है लेकिन हाथों सोने की अंगूठी हैं, रत्न पहन कर ग्रह पीड़ा का निवारण करता है. यदि कांचन है तो कामिनी भी होगी क्योंकि जहाँ जहाँ कांचन वहां वहां कामिनी होती है. यह इनके वास्तविक चरित्र और इनके आध्यात्मिक विकास को भी स्पष्ट करता है. इनमें धर्म का कोई आचरण नहीं हैं सिवाय इसके कि ये भाषण कला में दक्ष हैं, भाषण कला में दक्ष होने और किताब लिख लेने से कोई आत्मज्ञानी नहीं होता ऐसा उपनिषद कहती है. ये कलियुगी जनता को नाच-गाना से एंटरटेनमेंट करके रूपये कमाते हैं. ऐसे नाच-गाना से एंटरटेनमेंट करने वाले बाबा वेश्याओं से अधिक नहीं हैं.