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वाल्मीकि रामायण के प्रारम्भ के सर्ग 1-2 में रामायण लिखे जाने की प्रस्तावना है। एक दिन अपने शिष्य भारद्वाज के साथ वाल्मीकि तमसा नदी में स्नान करने के लिए गये। उन्होंने अपना वल्कल भारद्वाज को दिया और बोले -वत्स, यहीं मेरा कलश रख दो और वल्कल मुझे दो। भारद्वाज से वल्कल लेकर मुनि जंगल में टहलते हुए दूर निकल गये। उन्होंने देखा –
तस्याभ्याशे तु मिथुनं चरन्तमनपायिनम् |
ददर्श भगवांस्तत्र क्रौञ्चयोश्चारुनिःस्वनम् || 
कि क्रौंच पक्षियों का एक जोड़ा पास में ही प्रणय में मशगूल था और मधुर शब्द करते हुए एकदूसरे के इदगिर्द विचरण रहा था। इसी समय एक बहेलिये ने उस युगल में से नर पक्षी को अपने बाणों से मार डाला। वह पक्षी खून से लथपथ वहीं गिर पड़ा और पंख फड़फड़ाता हुआ तड़पने लगा और मृत्यु को प्राप्त हो गया। यह देख उसकी भार्या मादा क्रौंच करुणा से चीत्कार कर उठी (भार्या तु निहतं दृष्ट्वा रुराव करुणां गिरम् )। पति से वियुक्त होकर वह विलाप करने लगी। क्रौंची को विलाप करता देख वाल्मीकि ने करूणार्द्र हृदय से बहेलिये को इस प्रकार से श्राप दिया –
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम् ॥

हे निषाद, तुम अनंत वर्षों तक प्रतिष्ठा या शांति प्राप्त न कर सको, क्योंकि तुमने क्रौंच पक्षियों के जोड़े में से एक की, जो कामभावना से मोहित हो रहा था, बिना अपराध के उसका वध कर डाला है । (शब्दकोश के अनुसार क्रौंच सारस प्रजाति का पक्षी है)

श्राप देने के बाद वाल्मीकि आश्चर्यचकित हो सोचने लगे “शोकार्तेनास्य शकुनेः किमिदं व्याहृतं मया ” अहो! यह मैंने क्या कह दिया ! उन्होंने अपने श्राप के शब्दों पर ध्यान दिया तो उन्हें श्राप का निष्कर्ष मिल गया, उन्होंने प्रिय शिष्य से कहा – “तात, यह शोकार्त हृदय से जो वाक्य निकला था वो चार चरणों में बंधा हुआ था, इसके प्रत्येक चरण में आठ-आठ अक्षर बराबर चरण में हैं, इसे लय पर गाया भी जा सकता हैं, इसलिये यह वचन श्लोक रूप होना चाहिए, अन्यथा नहीं।” विचारों में खोये वे आश्रम लौट आये और अन्य वार्तालाप में व्यस्त हो गये, लेकिन उनका चित्त श्लोक पर ही लगा रहा। तभी ब्रह्मा जी वहां पधारे गये और उन्होंने वाल्मीकि से कहा कि जो श्राप उन्होंने दिया है वह श्लोक रूप ही होगा-
तमुवाच ततो ब्रह्मा प्रहसन्मुनिपुङ्गवम् ।
श्लोक एव त्वया बद्धो नात्र कार्या विचारणा ।।
ये श्लोक मेरी कृपा से ही तुम्हारी जिह्वा से निकले हैं। इन श्लोकों में तुम रामायण की रचना करो
मच्छन्दादेव ते ब्रह्मन् प्रवृत्तेयं सरस्वती।
रामस्य चरितं सर्वं कुरु त्वमृषिसत्तम ।।
श्राप कोई मंगलकारी नहीं होता लेकिन यह श्राप मंगल श्लोक बन गया. यह श्राप रामायण लिखे जाने की प्रस्तावना है और पटकथा के मूल में स्थित है. रामायण को आदि काव्य कहा जाता है क्योंकि रामायण से पूर्व काव्य नहीं लिखा गया था. रामायण दुनिया की एक मात्र साहित्यिक कृति है जो श्राप से प्रारम्भ होती है.

रामायण जैसी ही एक कथा महाभारत में पांडु से जुड़ी हुई है। पाण्डु हस्तिनापुर के महाराज विचित्रवीर्य और उनकी दूसरी पत्नी अम्बालिका के पुत्र थे जिनका जन्म वेदव्यास की कृपा से हुआ था। राजकुमारी अंबालिका जब महर्षि वेद व्यास के पास गई तो आँखें तो बंद नहीं की, परन्तु वे महर्षि वेदव्यास के तेज के कारण पीली पड़ गयी थी। उसको गर्भ तो हुआ लेकिन उसका चेहरा पीला पड़ जाने के कारण पांडु का रंग पीला हो गया मानो उन्हें पीलिया रोग हुआ हो। उनकी मृत्यु माद्री के साथ सहवास के दौरान हो गई थी क्योंकि उनको किन्दम ऋषि ने श्राप दिया था। यह कथा महाभारत में प्राप्त होती है।

एक समय राजा पाण्डु वन में आखेट के लिए विचरण कर रहे थे। वह वन हिंस्र प्राणियों से भरा हुआ तथा बड़ा भयंकर था। आखेट के लिए वन में विचरण करते हुए उन्हें एक मृग का मैथुनरत जोडे को देखा। पाण्डु ने तत्काल तरकश से अपने बाण निकाले और उस मृग पर संधान किया। उनके बाणों से मृग घायल होकर तड़पने लगा। मरणावस्था को प्राप्त हुए उस मृग ने पाण्डु से कहा, “राजन! तुम्हारे जैसा क्रूर निर्दयी पुरुष इस संसार में कोई भी नहीं होगा। अत्यन्त कामी, क्रोधी, बुद्धिहीन और पापी मनुष्य भी ऐसा क्रूर कर्म नहीं करते। मुझ निरपराध का वध करके आपको क्या लाभ मिला? मैं किन्दम नाम का तपस्वी मुनि हूँ। मनुष्य के रूप मैथुन कर्म करने में मुझे लज्जा का अनुभव होने के कारण से मैने मृग का रूप धारण किया था। मैं ब्राह्मण हूँ इस बात से अनजान होने के कारण आपको ब्रह्महत्या का पाप नहीं लगेगा किन्तु जिस अवस्था में आपने मुझे मारा है, वह किसी के वध करने के लिए सर्वथा अनुपयुक्त थी। तुमने मुझे मैथुन के समय बाण मारा है अतः मैं तुम्हें श्राप देता हूँ कि जब कभी भी तू मैथुनरत होगा तेरी मृत्यु हो जायेगी।” इतना कहकर किन्दम ने अपने प्राण त्याग दिए।
इसस शाप से पाण्डु अत्यन्त दुःखी हुये और अपनी रानियों से बोले, “हे देवियों! अब मैं अपनी समस्त वासनाओं का त्याग कर के इस वन में ही रहूँगा तुम लोग हस्तिनापुर लौट जाओ़” उनके वचनों को सुन कर दोनों रानियों ने दुःखी होकर कहा, “नाथ! हम आपके बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकतीं। आप हमें भी वन में अपने साथ रखने की कृपा कीजिये।” पाण्डु ने उनके अनुरोध को स्वीकार कर के उन्हें वन में अपने साथ रहने की अनुमति दे दी।
किन्दम ऋषि का श्राप वन में प्रवास के समय ही सही हुआ.