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देव्याथर्वशीर्ष के अनुसार, पराम्बा आद्यशक्ति ब्रह्मस्वरूप हैं, उनका जन्म नहीं होता─ इसलिये जिसे अजा कहते हैं; जो अकेली ही सर्वत्र है ─ इसलिये जिसे एका कहते हैं; जो अकेली ही समस्त रूपों में सजी हुई है. यह संसार उन्हीं से विस्तार को प्राप्त होता है, उन्हीं में स्थित है और उन्हीं में पुन: लौट जाता है. इस अनिर्वचनीय पराशक्ति को जानने वाला कोई नहीं. “सैवं स्वां वेत्ति परमा तस्या नान्योऽस्ति वेदिता।” वह परमाशक्ति स्वयं को जानती है, उसको जानने वाला कोई नहीं है. इस शंकराचार्य के वक्तव्य में बृहदारण्यक उपनिषद ही ध्वनित होता है-विज्ञातारमरे केन विजानियात. जो विज्ञाता है उसे कौन जानेगा.

स्त्री रूप में शक्ति उपासना की जाती है लेकिन उन्हें किसी शिवादि, विष्णु आदि देवता की पत्नी मान कर पूजा नहीं करना चाहिए, यह पाप है. ऐसा निम्न भाव करने से पतन होने की सम्भावना रहती है. उत्कर्ष के लिए उनमे ब्रह्मभाव की ही प्रतिष्ठा करनी चाहिए. शक्ति देवी की उपासना में उदात्त भाव रखना चाहिए जैसा कि ब्रह्मसूत्र में कहा गया है- ब्रह्म भाव की प्रतिष्ठा करके पूजा करनी चाहिए. किसी की लुगाई समझने या औरत समझने से चित्त की विकृति होती है. विकृति और परवर्जन सदैव निम्न भाव से ही होती है. अधोगति न हो इसलिए भाव को उन्नत करना चाहिए. शक्ति की उपासना थोड़ी कठिन है क्योंकि मातृ भाव से फेमिनिन फॉर्म में की जाती है. हिन्दू धर्म के पांच सम्प्रदाय में वैष्णव, शैव, शाक्त ही सबसे प्रमुख हैं. इन मूर्तियों में ब्रह्मभाव की प्रतिष्ठा करना कर्तव्य है. वैष्णवों के लिए विष्णु परब्रह्म है, शैवों के लिए शिव और शाक्तों के शक्ति ही परब्रह्म है. परब्रह्म ही सबका पति है. उपनिषद में वे ही ब्रह्मस्वरूपिणी हैं.
न तस्य कश्चित्‌पतिरस्ति लोके न चेशिता नैव च तस्य लिङ्गम्‌।
स कारणं करणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिपः॥ 
जगत्त्रय में उनका कोई भी पति नहीं है, उनका कोई शासक नहीं है और उनका कोई लिंग भी नहीं है. वह सबका परम कारण तथा समस्त कारणों की अधिष्ठाताओं की भी अधिपति हैं.
ब्रह्ममयी का कोई लिंग नहीं लेकिन उन्हें करुणामयी देवी मानकर उनकी की पूजा मातृभाव से की जाती है. मातृभाव में वात्सल्य भाव ही प्रमुख है. इसमें व्यभिचार सम्भव नहीं. विकृति भाव के व्यभिचार से होती है. देवी एक सुंदर स्त्री की मूर्ति है. पूजक पुरुष है. यदि वह वात्सल्य भाव से उपासना नहीं करता तो भाव में व्यभिचार हो जायेगा और मम्मी की वेजाईना की पूजा करने लगेगा जैसा निकृष्ट तांत्रिक करते देखे जाते हैं. इसको incest कहा जाता है. इस अशुद्ध परम्परा की विकृति ऐसी है कि वैष्णव देवी क्षेत्र में एक प्रचलित कथा के अनुसार एक भैरव तांत्रिक जो देवी भक्त था, एक दिन मनोविकृति होने से देवी के साथ ही सेक्स करने के चक्कर में पड़ जाता है. देवी पूजा करने वालो की अधोगति बहुत तेजी से होती देखी जाती है. मध्ययुगीन भारत में यह बहुत घृणित स्तर तक पहुच चुकी थी. यह कारण है कि यदपि की देवी मूर्ति फेमिनिन है लेकिन उनमे ब्रह्मभाव की ही प्रतिष्ठा करनी चाहिए.

पौराणिक थोडा निम्न स्तरीय और विकृत परम्परा है क्योंकि यह शक्ति को ब्रह्ममयी न मान कर सांख्य दर्शन की त्रिगुणात्मक प्रकृति या ब्रह्म की पत्नी या योगमाया के रूप में देखता रहा है. प्रचलन में यही पौराणिक विचार ज्यादा है इसलिए विकृति बहुत ज्यादा है. हलांकि देवी पुराण में देवी ब्रह्ममयी ही बताई हैं लेकिन यहाँ भी पौराणिक विकृति कोई कम नहीं है. यह विकृति इसलिए है पुराण बाबा और पुजारी वेदांत दर्शन को ठीक से नहीं समझते. भारत में सारी धार्मिक विकृति पुराण बाबाओं और पुजारियों की देन है.
शक्ति ब्रह्ममयी सदैव तुम्हारे साथ है, वह तुम्हारा त्याग कभी नहीं करतीं लेकिन अज्ञानता के कारण तुम खुद को शक्तिहीन समझते हो. खुद को पहचानो तुम कौन हो ? वेद कहते हैं ‘अमृतस्य पुत्रा:” तुम उसके पुत्र हो.