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जन्म कुंडली में लग्न से महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं होता, सभी ग्रहयोग लग्न की शक्ति और शुभत्व पर निर्भर करते हैं।  लग्न के बारे में ऋग्वेद की एक ऋचा कहती है कि द्यौ लोक धेनु है, आदित्य उसका बछड़ा है- “ द्यौर्धेनुस्तस्या आदित्यों वत्स:” अर्थात  द्यौ रूपी ये गाय मतलब लग्न को जब सूर्य रूपी बछड़े का बल मिलता है तो ये जातक की सभी कामनाओं को पूरा करती है। ऋग्वेद की एक अन्य ऋचा में भी लग्न की उपमा धेनु से दी गई है
दिशो धेनवस्तासाम चन्द्रो वत्स: । 
ता मे चन्द्रेण वत्सेनेष मूर्ज्म कामं दुहाम ।। 
दिशाएं अर्थात उदित लग्न ही धेनु है और चन्द्रमा उसका बछड़ा, बलवान सूर्य की तरह बलवान चन्द्रमा भी हो तो लग्न व्यक्ति की सभी कामनाओं को पूरा करता है। लग्न के बली और अच्छा होने पर सभी भाव और ग्रह अपना अच्छा फल करते हैं। लग्न तनु अर्थात देह और व्यक्तित्व है, इसका स्वरूप लग्न के स्वामी की स्थिति, लग्न और लग्नेश पर पड़ने वाले शुभ-अशुभ ग्रहों का प्रभाव, सूर्य और चन्द्र की जन्म कुंडली में स्थिति पर निर्भर करता है । यह देखा जाता है कि जिनकी जन्म कुंडली में सूर्य उच्च या स्वगृही होता है, अच्छे भाव में स्थित होता है तो उनमें आत्मबल अच्छा होता है। अच्छे लग्न से जातक की सम्पूर्ण कामनाएं पूरी होती है। लग्न आपकी सम्भावना है, लग्न आपकी पहचान है। लग्न आपकी वास्तविकता है जिसे आप एक विशेष समय में लेकर इस दुनिया में अवतरित हुए हैं। किसी भी भाव की सम्भावना भी लग्न पर ही निर्भर करती है, किसी भी भाव की ऊर्जा का पूर्ण प्रकटीकरण के लिए लग्न का बली होना आवश्यक है । उदाहरण के लिए कोई जातक धर्म मार्ग का पथिक नहीं हो सकता है और नवम भाव की ऊर्जा का उपयोग नहीं कर सकता यदि उसका लग्न ऐसा हो जिसका स्वभाव आध्यात्मिक नहीं है और लग्नेश उन नक्षत्रो में स्थित हो जाएँ जिनका मोटिवेशन जागतिक है। जातक की प्रकृति का विचार लग्न से ही प्रमुख रूप से किया जाता है लेकिन प्रमुख ग्रहों की स्थितियों के अनुसार भी विचार करना चाहिए । यथा –
चरसंज्ञा स्थिरसंज्ञा द्विप्रकृतिरिति राशय: क्रमश: ।
राशि-स्वभाव-तुल्या जायन्ते प्रकृतय: प्रसूतानाम ।।
यदि चन्द्रमा, लग्नेश सहित प्रमुख ग्रह चर राशियों में स्थित हों तो जातक विचारशील ज्यादा होता, स्वभाव भ्रमणशील होगा ।
यदि लग्न, लग्नेश, चन्द्र का सम्बन्ध एकादश भाव से हो जातक की सभी ईच्छाएं पूर्ण होती है । वहीँ दूसरी तरफ यदि लग्न अष्टम भाव जुड़ जाये तो जातक जिन्दगी भर समस्याओं से मुक्त नहीं हो पाता। कई बार लग्न शुभ उदय होने, बहुत अच्छे योग बने होने पर भी जातक का अभ्युदय नहीं हो पाता , जातक जन्म कुंडली दिखाते हैं कि हमारे तो केंद्र में उच्च का गुरु है और गजकेसरी भी बना हुआ है लेकिन परेशानियों से जूझ रहा हूँ। पराशर ऋषि ने बताया है कि किन कारणों से ऐसा होता है –
अथाऽन्यत् संप्रवक्ष्यामि सुलग्ने सुग्रहेष्वपि ।
यदन्यकारणेनापि भवेज्जन्माऽशुभप्रदम् ॥

दर्शे कृष्णाचतुर्दश्यां विष्ट्यां सोदरभे तथा ।
पितृभे सूर्यसंक्रान्तौ पातेऽर्केन्दुग्रहे तथा ॥

व्यतीपातादिदुर्योगे गण्डान्ते त्रिविधेऽपि वा ।
यमघण्टेऽवभे दग्धयोगे त्रीतरजन्म च ॥ प्रसवस्य त्रिकारेऽपि ज्ञेयं जन्माऽशुभप्रदम् ।
शान्त्या भवति कल्याणं तदुपायं च वच्म्यहम् ॥
हे मैत्रेय ! शुभ लग्न एवं सुंदर ग्रहों का योग होने पर भी अन्य कारणों से मनुष्य का जन्म अशुभप्रद होता है, उसे मैं तुमसे कहता हूँ। जिसका जन्म अमावस्या, कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी एवं भद्रा करण में, अपने सहोदर भाइयों के नक्षत्र में, माता पिता के नक्षत्र में, सूर्य संक्रांति में, पात योग में, सूर्य या चन्द्र ग्रहण में, व्यतिपात नामक अनिष्टकारी योग में, गंडान्तों में, यम घंट योग में, दग्ध योग में, तितर जन्य योग में ( तीन कन्या के बाद पुत्र या तीन पुत्र के बाद कन्या )का जन्म हो , प्रसवविकार में जन्म अशुभ होता है । लेकिन शांति करने पर सभी शुभकारक होते हैं।

जन्म का समय ही जातक के भाग्य का निर्णायक और विधायक होता है इसलिए निम्नलिखित अशुभ जन्मों की विशेष रूप से शास्त्रों में चर्चा की गई है-
१- नीचगत सूर्य – सूर्य कार्तिक महीने में तुला राशि में नीच स्थिति को प्राप्त करता है । जिनका जन्म नीच अंशों में होता है उन्हें रोजगार में उतार चढ़ाव, कमजोरी आत्मबल , कमजोर स्वास्थ्य , पुत्र की प्राप्ति में समस्या , सुख की कमी इत्यादि होते हैं।
२- नीचगत चन्द्रमा- हर महीने में एक बार चन्द्रमा वृश्चिक राशि में जाता है उसमें नीच स्थिति को प्राप्त होता है । ऐसे चंद्रमा के होने से जातक में कई शुभ गुणों का आधान नहीं हो पाता । कुंडली के शुभ फलों में कमी कर देता है ।
३-सूर्य संक्रांति में जन्म- साल भर में सूर्य की बारह संक्रांति होती है, ऐसी संक्रांति काल में साढ़े छह घंटे आगे पीछे के समय का जन्म अशुभ होता है क्योंकि सूर्य दो राशियों के बीच स्थित होता है। २९.५४ अंश से ००:१५ अंश तक के बीच स्थित सूर्य कुंडली को बहुत कमजोर कर देता है और भाव के फल का शुभ प्रभाव नहीं देता ।
४-सार्प शीर्ष – जिस तरह सांप के फन को देख भय होता है उसी तरह का यह एक खतरनाक योग है । मार्ग शीर्ष की अमावस्या के दिन जब चन्द्रमा और सूर्य अनुराधा नक्षत्र के तीसरे और चौथे पाद में हों तो यह योग बनता है । इस योग में जन्मे लोगों का भाग्य नाश होता है , ये दुखी, रोगी और अल्पायु होते हैं । सार्पशीर्ष में नीच चन्द्रमा का कुयोग भी सम्मलित रहता है इसलिए ज्योतिष के आचार्यों ने इसे विनाशक कहा है ।
५-गंडांत जन्म – रेवती-अश्विनी, अश्लेशा-मघा, ज्येष्ठा-मूल ये नक्षत्र गंडमूल नक्षत्र कहे गये हैं । इनका संधि काल अशुभ फल प्रदान करने वाला होता है । इनमे जन्म को अभुक्त मूल कहा गया है- अश्लेषा का अंत मघा का प्रारम्भ, ज्येष्ठा का अंत मूल का प्रारम्भ , रेवती का अंत अश्विनी का प्रारम्भ गंडांत माना गया जिसका फल बड़ा विनाशक होता है । शास्त्र में आचार्यों ने शान्तिं के बाद ही सन्तान का मुख देखने का आदेश दिया है, यथा ऋषि शौनक-
अभुक्त मूलजातानां परित्यागो विधीयते ।
अदर्शनेवापि पितु: स तु तिष्ठेत्समाष्टकं ।।
नवमे वत्सरे (शान्तिं ) जन्मर्क्षे तस्य कारयेत ।
शान्तिं कृत्वा मुखं पश्येतपिता पुत्रस्य निश्चयात ।।
अभुक्त मूल में जन्म हो तो नव महीने पिता को सन्तान का त्याग करना चाहिए, तत्पश्चात विधि पूर्वक शांति के बाद ही मुख दर्शन करना चाहिए ।
५- अमावस्या और चतुर्दशी में जन्म – अमावस्या में जन्म हो या चतुर्दशी में जन्म हो दोनों ही अशुभ कहा गया है । अमावस्या – अमावस्या तीन प्रकार की होती है। सिनीवाली, दर्श और कुहू। प्रातःकाल से लेकर रात्रि तक रहने वाली अमावस्या को सिनीवाली, चतुर्दशी से बिद्ध को दर्श एवं प्रतिपदा से युक्त अमावस्या को कुहू कहते हैं । तीनों के अलग अलग फल बताये गये हैं । प्रतिपदा विरहित और चतुर्दशी युक्त तिथि में जन्म से जातक को दुःख प्राप्त होता है, परिवार विनष्ट होता है, विवाह भंग और अलगाव , ससुराल में मान सम्मान की कमी, जीवन में हर तरह की बाधा आती रहती है ।
६- यमघंट – यमघंट एक मुहूर्त योग है जो इन तिथियों में बनता है – रविवार को मघा नक्षत्र हो , सोमवार-विशाखा , मंगलवार -आर्द्रा , बुधवार-मूल, बृहस्पतिवार-कृत्तिका, शुक्रवार-रोहिणी , शनिवार-हस्त इन दिनों में चन्द्रमा इन नक्षत्रों में हो और इस यमघंट योग में जन्म हो तो जातक अशुभ परिणाम मिलता है ।
७-वैनाशिक नक्षत्र -जन्म नक्षत्र से गिनने पर २२ वें नक्षत्र को वैनाशिक नक्षत्र कहते हैं । इस नक्षत्र में जातक का लग्न इत्यादि पड़े तो अशुभ फल मिलता है ।
८- विषघटी – हर नक्षत्र की कुछ घटी से लेकर ४ घटी तक का समय अशुभ माना गया है जो निम्न लिखित प्रकार से है -१) अश्विनी-५० से ५४ घटी, २) भरणी,पूर्वाषाढ़ तथा उत्तरभाद्रपद -२४ से २८ घटी, ३) कृतिका,पुनर्वसु,रेवती व मघा-३० से ३४ घटी, ४) रोहिणी-४० से ४४ घटी, ५) मृगशिरा,स्वाति,विशाखा,व ज्येष्ठा -१४ से १८ घटी, ६) आर्द्रा व हस्त-२१ से २५ घटी, ७) पुष्य,चित्रा,पूर्वफाल्गुनी उत्तराषाढ़ा -२० से २४ घटी, ८) अश्लेषा-३२ से ३६ घटी,  ९) उत्तरफालगुनी, शतभिषा – १८ से २२ घटी, १०) अनुराधा व श्रवण -१० से १४ घटी, ११) मूल-५६ से ६० घटी, १२) पूर्वभाद्रपद-१६ से २० घटी । इन घटियों में जन्म हो तो जातक को असफलता , अल्पायु होना , अचानक मुश्किले आती हैं और जिन्दगी भर परेशानी रहती है । शास्त्रों में इसका परिहार भी बताया गया है, मसलन यदि चन्द्र या लग्न स्वामी शुभ राशि में हो , शुभ ग्रहों द्वारा दृष्ट हों , अपने नवांश में हो या लग्न से ९, ५, ७, ४ भावों में हो तो दोष नहीं होता या इसमें बहुत कमी हो जाता है ।
९-महापात -यह सूर्य चन्द्र का क्रांति साम्य से बनता है । जब सूर्य और चन्द्र स्पष्ट का योग १८० अंश या ३६० अंश हो तो क्रांति साम्य का मध्य होता है इससे २-३ घंटे आगे पीछे क्रांति साम्य रहता है । इस काल में जन्म बहुत अशुभ माना गया है ।
१०- पाप कर्तरी योग- यदि चन्द्रमा या लग्न से दूसरे और बारहवें स्थानों में पाप ग्रह स्थित हों तो पाप कर्तरी योग होता है । द्वादश स्थित पाप ग्रह मार्गी हो और द्वितीय स्थित पाप ग्रह वक्री हो तो महाकर्तरी योग होता है जो जातक के लिए बहुत अशुभ होता है । यदि गुरु बारहवें हो , लग्न में कोई शुभ ग्रह हो , चन्द्र तीसरे हो , बुध-शुक्र-गुरु केंद्र में हो या त्रिकोण में हो , दुसरे भाव में शुभ ग्रह हो , कर्तरी योग निर्मित करने वाले ग्रह यदि नीच हों तो पाप कर्तरी योग का प्रभाव खत्म हो जाता है ।
११-रिक्ता तिथि – शुक्ल और कृष्ण पक्षों की चतुर्थी, नवमी व चतुर्दशी (४,९,१४) रिक्त तिथियाँ होती है इन्हें अशुभ माना जाता है ।
१२-व्यतिपात- सूर्य व चंद्र की क्रांति समान होने पर यदि दोनों एक अयन में हो तो व्यतिपात योग होता है। यह योग भी जन्म के लिए अशुभ माना गया है। वास्तव में विष्कुम्भ, अतिगण्ड, शूल, गण्ड, व्याघात, वज्र, व्यतिपात, परिध और वैधृति योग में जन्म कुछ न कुछ परेशानियों को जन्म देने वाले होते हैं ।
१३-भद्रा करण-ज्योतिष में ११ करण होते हैं इनमें से बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि करण ये करण चर करण कहलाते हैं, और अन्य शकुनि, चतुष्पाद, नाग और किस्तुघ्न स्थिर या ध्रुव करण कहलाते हैं । विष्टि को ही भद्रा के नाम से भी जाना गया है । करण तिथि का आधा भाग होता है । ये चर और स्थित करण में विभाजित हैं । विष्टि 7वें भाग में आने वाला करण है जिसमे भद्रा कहते हैं । भद्रा पृथ्वी, स्वर्ग और पाताल में निवास करती रहती है और उसी के अनुसार शुभाशुभ फल होता है। कृष्ण पक्ष की प्रारम्भिक पांच घड़ी की भद्रा सर्पिणी होती है , शुक्ल पक्ष की अंतिम पांच घड़ी की भद्रा वृश्चिक होती है , इसमें जन्म अशुभ होता है।