
वासुदेववादी पंचरात्री हर साल औरतो की तरह कृष्ण को पैदा करते हैं. उनका मोटिवेशन सांसारिक होने के कारण सभी सांसारिक कृत्य करते हैं. बच्चे को सभी जातकर्म संस्कार करते हैं, यह सोचते रहते हैं कि हम पाप कर्म से बाबा बन गये, सारे सुख खत्म हो गये. हम भी ऐसे जन्म लें सके, ऐसी मन से कामना करते रहते हैं. एक वैष्णव 2000 साल में नहीं हुआ जिसकी कोई आध्यात्मिक उड़ान हो, कुछ ऐसा लिख पाया हो जिसे महान कहा जा सकता हो. इन्होने हो कुछ उत्पन्न किया वह ज्यादातर पौराणिक गपोड़ ही है. भारत के सभी उदात्त ग्रन्थ जिसे दुनिया के वैज्ञानिक, विद्वान् पढ़ते हैं वो शैव आचार्यों ने लिखा था चाहे वह योगसूत्र हो, पाणिनि के सूत्र हों, नाट्य शास्त्र, या अन्य दार्शनिक सूत्र हों. भक्ति साहित्य में भी कोई उम्दा ग्रन्थ नहीं मिलता जिसमे कोई उड़ान हो और उसमे ईश्वरीय प्रत्यभिज्ञा हो.
कृष्ण जन्म हर साल भाद्रपद महीने में मनाते हैं और हर साल खीरा का पेट फाड़ कर उसमे से बच्चा पैदा कराते हैं और प्रपंच करते हैं या कुछ जिस तरह बच्चे के जन्म के समय उसकी गर्भनाल काटी जाती है, उसी तरह जन्माष्टमी की रात खीरे का तना काटते हैं. विधि अलग अलग है. कुछ रात 12 बजे एक सिक्के से खीरा और डंठल को बीच से काट दे ते हैं जो नाल छेदन कहते हैं. अब खीरा का क्या करें ? यह प्रतीक है देवकी के गर्भ का, अंत में उसे खा जाते हैं. यह काफी विचित्र है. यह पौराणिक प्रपंच करते हुए इन्हें 1500 साल हो गये. ये वैष्णव प्रपंच को ही भक्ति कहते हैं. इनकी भक्ति से देश गुलाम हो गया था.