
पहले लेख में बताया गया था कि मत्स्यपुराण 18 पुराणों में प्रारम्भिक पुराण है. इसकी रचना का समय 200 से 500 AD माना गया है. यह गुप्त काल था जिसमे वैष्णव सम्प्रदाय ने अवतारवाद को धीरे धीरे स्थापित करना शुरू कर दिया था, जिसे आगे की शताब्दियों में विशेष रूप प्रचारित किया गया था. वैष्णव अवतारों के इदगिर्द पुराण लिखे जाने लगे. वैष्णव मूलभूत रूप से भौतिकवादी और सांसारिक चरित्र रखने के कारण प्रोपगेंडा में सभी सम्प्रदायों में सबसे आगे सदैव से रहे हैं. वैष्णव मूलभूत रूप से पितर पूजक ही हैं.
गुप्त काल में लिखित मत्स्य पुराण में प्रतिमा वर्णन में कृष्ण की प्रतिमा का वर्णन नहीं है. जबकि कुछ माईनर देवताओं की प्रतिमा का वर्णन है जैसे निऋति देवता. इससे स्पष्ट है चौथी शताब्दी तक कृष्ण देवता नहीं बन पाए थे और मूर्ति का विकास नहीं हुआ था. मत्यस्य पुराण में दूसरी प्रमुख बात ये है कि तब तक नौग्रहों की मूर्ति का भी पूरा विकास नहीं हुआ था. उस समय तक नक्षत्र केन्द्रित पूजा होती थी. मत्स्यपुराण में विष्णु के विग्रह में नक्षत्रों की पूजा का वर्णन है. मत्स्यपुराण से स्पष्ट है मूर्ति की फैक्ट्री बाद के लिखे पुराणों से शुरू हुई. दो भुजा वाले बंशी बजाते मुद्रा में, मोर मुकुट वाले, पैर में पाजेब पहने, स्त्रैण मूर्ति का विकास बहुत बाद का है. यह विकास तब हुआ जब 7वीं-8वीं शताब्दी के बाद तांत्रिक पांचरात्र प्रभावी प्रभावी होने लगा. यदपि की वासुदेव-कृष्ण का धीरे धीरे विकास पहले से ही चल रहा था लेकिन विग्रह नहीं था, लेकिन इमेज विकसित नहीं हो पाई थी. यह हिन्दुओं में प्रभावी नहीं था, सम्भवत: कुछ इलीट तक सीमित रहा होगा. गुप्त काल तक कृष्ण की कोई मूर्ति नहीं मिलती.
यह मोरमुकुट और रासलीला वाले कृष्ण की मूर्ति बहुत बाद का विकास है. श्री कृष्ण एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं, यह एक राजा थे. वासुदेववादी वैष्णवों ने कृष्ण को भगवान बनाया क्योंकि वह एक धार्मिक राजा था, ब्राह्मणों के काम करता था, कथा सुनता था और खुद कथा कहता भी था. वह एक उपासक भी था. उससे प्रपंचवादियों ने सारी एकादशी की कथा कहवाई यदपि की किसी राजा को राजकाज के बाद इतना समय नहीं होता. तंत्र के विकास के दौर में जब पांचरात्रियों ने कामाचार को बढ़ाया, तब कृष्ण की एक रोमांटिक इमेज बनी. इसी दौर में हिन्दुओं को ज्यादा परवर्ट करने और अंधकार में गिराने में सफल हो गये थे. कृष्ण की मूर्ति का वर्णन गुप्त काल में होता भी कैसे, वैष्णव मत्स्य पुराण में तो ब्रह्मा के शाप से कामदेव युदुवंश के राजाओं के कुल में भोगी कृष्ण के रूप में पैदा होने वाले थे. मरने के बाद फिर एक राजा के यहाँ जन्म लेने वाले थे, और फिर मर कर विद्याधर बन कर वापस ब्रह्मा के यहाँ लौटने वाले थे. यह पौराणिक गपोड़शंख का विकास बौधों के मूर्ति विकास के साथ कम्पटीशन में शुरू हुआ. पुराणों ने मूर्ति की फैक्ट्री लगा ली और भांति भांति विचित्र देवता प्रकट होने लगे. ऐसा गपोड़शंख ज्यादा दिन नहीं चल पायेगा. कोई भी दूसरा जो इनसे विकसित था उसने इनको निपटा दिया. उत्तर वैदिक काल में ये बौधों द्वारा निपटा दिए गये क्योकि इनका बौधिक विकास रुक गया था. ये कूपमंडूक कर्मकांड तक रह गये थे.
मेरा मानना है कि पौराणिक गपोड़शंख अज्ञानता का विस्तार करता है जिससे अधर्म की वृद्धि होती है, समाज पतित होता है. मध्य युग में पौराणिक गपोड़शंख ने यही किया था, हिन्दू जनता अज्ञानता में चली गई, हिन्दू समाज का बौधिक विकास रुक गया. जिस प्रकार वर्तमान समय में पौराणिक गपोड़शंख विश्वगुरु बनाते बनाते भारत को नीचे ले गया है, भारत का विकास अवरुद्ध हो गया है और अज्ञानी-निपढ बाघेश्वर धाम जैसे धर्म के ठेकेदार न बने हुए हैं. उसी प्रकार मध्य युग में हुआ था जिससे भारत गुलाम हो गया और 1000 साल गुलाम रहा. देश की हिन्दू जनता का बौधिक विकास हो इसलिए जरूरी है इस पौराणिक रिजीम का नाश किया जाय जिस तरह स्वतन्त्रता के बाद इनका प्रभाव कम हो गया तब देश का विकास हुआ और देश की जनता आगे बढ़ पाई.