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अन्न प्राण का आधार है. अन्न शुद्ध होने से प्राण की शुद्धि होती है. काश्यप संहिता में कहा गया है कि संसार में आहार से बढ़कर अन्य दूसरी औषधि नहीं है. इसको सुधार कर मनुष्य सभी प्रकार के रोगों से छुटकारा पा सकता है। उसके अनुसार आहार महाभैषज है अर्थात महा औषधि है. इसी तरह का प्रतिपादन गीताकार भगवान कृष्ण ने भगवद्गीता में किया है और कहा है कि जो अन्न आयु बढाये, रोग भगाए उस अन्न का ही सेवन सात्विक लोग करते हैं. पथ्यकारक अन्न सेवन करने पर रुग्णता नहीं आती, यह आयुष्य प्रदान करता है.
आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः।।17.8।।
आयु, सत्त्वगुण, बल, आरोग्य, सुख और प्रसन्नता बढ़ानेवाले, स्थिर रहनेवाले, हृदयको शक्ति देनेवाले, रसयुक्त तथा चिकने – ऐसे आहार अर्थात् भोजन करनेके पदार्थ सात्त्विक मनुष्यको प्रिय होते हैं.
सृष्टि त्रिगुणात्मक है. तीन वेद हैं, तीन देवता हैं, तीन देवियाँ हैं, तीन लोक हैं, तीन गुण हैं, तीन अग्नियाँ हैं सब तीन तीन है. मनुष्य भी तीन प्रकार के हैं- सत्वगुणी – ब्राह्मण , रजोगुणी -क्षत्रीय और वैश्य, तमोगुणी -शुद्र आदि.
इसी तरह ज्ञान भी तीन प्रकार का है. किताबे भी तीन प्रकार की हैं. पुराण भी तीन प्रकार के हैं. सम्प्रदाय भी तीन प्रकार के हैं. पुराणों में तीन तरह का विभाजन है सात्विक, राजसिक और तामसिक पुराण. इसमें कोई हेय बात नहीं है. मनुष्य की चेतना का विकास क्रम ऐसा है.

आहार भी सबको तीन प्रकार का प्रिय होता है और वैसे ही यज्ञ, दान और तप भी तीन प्रकारके होते हैं अर्थात् शास्त्रीय कर्मोंमें भी तीन प्रकार की रुचि होती है. सात्विक मनुष्य ज्ञान मार्ग का अनुसरण करता है और अद्वैत में समाहित हो जाता है, उसके लिए रजोगुण से उत्पन्न होने वाला कर्म खत्म हो जाता है. दूसरे कर्मयोगी हैं जो सात्विक-राजस मिश्र मनुष्य हैं, ये वैदिक-तांत्रिक विधि से सात्विक देवता की उपासना करते हैं, तामसिक मनुष्य भूत सिद्धि, पितर पूजा या यक्ष यक्षिणी की सिद्धि करता है या अशास्त्रविहित घोर तप कर्म करता है.

सात्विक हर चीज को सनातन धर्म में ईश्वर सिद्धि में सहायक माना गया है. दान आदि कर्म भी जब सात्विक होते हैं तो मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है. आयुर्वेद के अनुसार अन्न अपने मूल रूप में खाये जाने पर औषधि का काम करते हैं. इसलिए उसे ‘अमृतान्न’ भी कहा गया है. आहार विशेषज्ञों का कहना है कि प्रायः सभी प्रकार के अन्य-धान्यों को उनके प्राकृतिक रूप में अंकुरित करके अथवा उबाल करके खाने पर उसके अधिक से अधिक तत्व शरीर को प्राप्त होते हैं जिससे शरीर पुष्ट होता है और आरोग्य की प्राप्ति होती है. मानव शरीर के विकास एवं मांसपेशियों के निर्माण के जिन 27 प्रकार के अमीनो एसिड की आवश्यकता पड़ती है, उनकी पूर्ति सूखी दालों से संभव नहीं हो पाती. अंकुरित अन्न प्रमुख रूप से दाल से इसकी पूर्ति हो जाती है. अंकुरित दालों में न केवल प्रोटीन की मात्रा बढ़ जाती है, वरन् विटामिन-’ए’ तथा ‘ई’ जैसे जीवनदायी तत्वों की भी बढ़ोत्तरी हो जाती है. इससे पौष्टिकता के साथ रोग प्रतिरोधी क्षमता की भी वृद्धि होती है. अंकुरित अन्न, मूँग, मूँगफली के साथ उसे पकाया जाय तो वह अधिक लाभदायक सिद्ध होगा. पोषकता प्रदान करने के साथ ही यह आँतों की सफाई का भी काम करता है. दलिया में भी गेहूं के अतिरिक्त पिसी हुई अंकुरित मूँग और मूँगफली मिला देने पर वह स्वादिष्ट, सुपाच्य और पुष्टिकारक बन जाती है.

हिन्दू संस्कृति में आहार का उद्देश्य देह की पुष्टि मात्र नहीं है सात्विक अन्न पर बल दिया जाता है क्योंकि सात्विक अन्न मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति में सहयोगी होता है. आहार ऐसा हो जो ध्यान-साधना के लिए आवश्यक ओज प्रदान करे तथा विषयों के प्रलोभनों से अविचलित रहने के लिए बल की वृद्धि करे. अरोग्यवर्धक आहार सात्त्विक पुरुष को प्रिय होता है ऐसा भगवद्गीता में कहा गया है. वह आहार ही सात्विक है जिससे प्रीति और मन की प्रसन्नता हो. भोज्य पदार्थों के गुणानुसार यहाँ उन्हें चार भागों में वर्गीकृत किया गया है. 1- रस्या -रसयुक्त फल, दूध, मधुपर्क इत्यादि 2- स्निग्ध-चिकनाई से युक्त घी, मक्खन, बादाम, काजू, किशमिश, सात्त्विक पदार्थों से निकले हुए तेल आदि स्नेहयुक्त भोजनके पदार्थ 3- स्थिर अर्थात शरीर में बहुत काल तक सार रूप में रहने वाले 4 -हृद्या-मनप्रसाद के अनुकूल. सात्त्विक पुरुषों को ऐसे समस्त पदार्थ स्वभावत: प्रिय होते हैं जो उपर्युक्त गुणों से युक्त होते हैं अर्थात् आयुबलादि विवर्धक होते हैं.