Spread the love

भाद्रपद की शुक्ल चतुर्दशी को अनंत चतुर्दशी के नाम से भी जाना जाता है और इस दिन अनंत के रूप में विष्‍णु की पूजा होती है। अनंत विष्णु के व्यूह हैं जिन्हें शेष भी कहा जाता है। इस दिन व्रत करने वाले महिलायें और पुरुष अपने हाथ में एक धागा जिसे अंनत राखी कहते है, बांधते है। इस धागे में 14 गांठ होती है जो 14 लोकों को निरूपित करती हैं। पुरुष इस धागे को अपने दाएं हाथ में और महिलाएं अपने बाएं हाथ में बांधती है।
भविष्य पुराण के अनुसार जुए में दुर्योधन के हाथों जब पांडव राजपाट हार कर जंगल में भटक रहे थे और कई प्रकार के कष्टों को झेल रहे थे तब उन्होंने श्री कृष्ण से कष्ट से निवृत्ति का उपाय पूछा था। उस समय कृष्ण ने उन्हें अनन्त चतुर्दशी का व्रत करने की सलाह दी जिसे उन्होंने किया था। उसी व्रत के प्रभाव से पांडवों को अनंत का आशीर्वाद मिला और वे सभी कष्टों से मुक्त हुए तथा महाभारत के युद्ध में उन्हें विजयी की प्राप्ति भी हुई। अनंत चतुर्दशी के महात्म्य पर कृष्ण ने युधिष्ठिर से कौण्डिल्य एवं उसकी पत्नी शीला की कथा सुनाई थी। कहा जाता है कि यदि कोई व्‍यक्ति इस व्रत को लगातार 14 वर्षों तक नियम से करे, तो उसे विष्णु लोक की प्राप्ति होती है। यह कथा पाशुपत शैव योगाचार्य कौण्डिन्य से भी जुड़ी हुई है।

प्राचीन काल में सुमंत नाम का एक तपस्वी ब्राह्मण था। उसकी पत्नी का नाम दीक्षा था। उसकी एक परम सुंदरी धर्मपरायण तथा ज्योतिर्मयी कन्या थी जिसका नाम सुशीला था। सुशीला जब बड़ी हुई तो उसकी माता दीक्षा की मृत्यु हो गई। पत्नी के मरने के बाद सुमंत ने कर्कशा नामक स्त्री से दूसरा विवाह कर लिया। सुशीला का विवाह ब्राह्मण सुमंत ने कौंडिन्य ऋषि के साथ कर दिया। विदाई में कुछ देने की बात पर कर्कशा ने दामाद को कुछ ईंटें और पत्थरों के टुकड़े बांध कर दे दिए। कौंडिन्य ऋषि दुखी हो अपनी पत्नी को लेकर अपने आश्रम की ओर चल दिए। परंतु रास्ते में ही रात हो गई। वे नदी तट पर संध्या करने लगे। सुशीला ने देखा कुछ महिलाएं पूजा अनुष्ठान कर रही हैं, उसे पूछने पर उन्होंने विधिपूर्वक अनंत व्रत की महत्ता बताई। सुशीला ने व्रत अनुष्ठान प्रारम्भ कर दिया, इसके प्रभाव से कौण्डिन्य का घर समृद्ध हो गया। एकदिन चतुर्दशी को सुशीला ने उस व्रत का अनुष्ठान किया और चौदह गांठों वाला डोरा हाथ में बांध कर ऋषि कौंडिन्य के पास आ गई।

कौंडिन्य ने सुशीला से डोरे के बारे में पूछा तो उसने सारी बात बता दी। उन्होंने डोरे को तोड़ कर अग्नि में डाल दिया, इससे भगवान अनंत का अपमान हुआ। परिणामत: ऋषि कौंडिन्य दुखी रहने लगे। सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई। इस दरिद्रता का उन्होंने अपनी पत्नी से कारण पूछा तो सुशीला ने अनंत भगवान का डोरा जलाने की बात कहीं।

पश्चाताप करते हुए ऋषि कौंडिन्य अनंत डोरे की प्राप्ति के लिए स्वयं तप करने लगे और वन में चले गए। कौण्डिन्य ने देखा वृक्ष पर फल हैं लेकिन कोई खाता नहीं, पुरे वृक्ष में कीड़े लगे हुए हैं – उन्होंने वृक्ष से पूछा अनंत का पता लेकिन वृक्ष ने नकारात्मक उत्तर दिया। कौण्डिन्य फिर देखा एक गाय और बछड़ा खेत में खड़े हैं लेकिन कुछ खा नहीं रहे हैं। फिर उन्होंने देखा कि दो तालाव आपस में मिले हुए हैं, उनका जल एक दूसरे में बह रहा है। उन्होंने फिर एक गधा और हाथी देखा। उन्होंने सबसे अनंत का पता पूछा लेकिन किसी ने नहीं बताया। वन में कई दिनों तक भटकते-भटकते डोरी न प्राप्त होने पर निराश होकर एक दिन डोरी से फांसी लगा कर आत्महत्या करने लगे । तब अनंत भगवान ब्राह्मण के रूप में प्रकट हुए और प्रकट होकर उनके गले से रस्सी हटाया. वह ब्राह्मण उन्हें एक गुफा में ले गया और अदृश्य हो गया, तब कौण्डिन्य ने देखा कि अनंत देव एक बड़े सिंहासन पर विराजमान हैं और इदगिर्द लोग उनकी सेवा में लगे हैं। कौण्डिन्य दंडवत होकर क्षमायाचना मांगते हुए कहने लगे “मैं बड़ा पापी हूँ, प्रभु मुझे क्षमा करें ” तब अनंत ब्राह्मण से बोले- ‘हे कौंडिन्य! तुमने मेरा तिरस्कार किया था, उसी से तुम्हें इतना कष्ट भोगना पड़ा। तुम दुखी हुए। अब तुमने पश्चाताप किया है। मैं तुमसे प्रसन्न हूं। अब तुम घर जाकर विधिपूर्वक अनंत व्रत करो। चौदह वर्षपर्यंत व्रत करने से तुम्हारा दुख दूर हो जाएगा। तुम धन-धान्य से संपन्न हो जाओगे।”
कौंडिन्य ने वैसा ही किया और उन्हें सारे क्लेशों से मुक्ति मिल गई।’

कथा शनि और बृहस्पति दोनों से सम्बन्धित है क्योंकि दोनों भाद्रपद नक्षत्र एकदूसरे की राशि में पड़ते हैं. पूर्वभाद्रपद में शनि प्रथम तीन चरण के स्वामी , गुरु चतुर्थ चरण के स्वामी है, नक्षत्र स्वामी बृहस्पति और देवता शैव अजएकपाद हैं, तथा उत्तरभाद्रपद के चारो चरण के बृहस्पति की राशि में है तो वे स्वामी हैं, नक्षत्र स्वामी शनि है तथा देवता वैष्णव अहीरबुधन्य हैं जिन्हें अनंत कहा गया है। जिस तरह दोनों नक्षत्र एकदूसरे से जुड़े हुए हैं वैसे ही दोनों देवता अजएकपाद और अहिर्बुध्न्य भी एकदूसरे से जुड़े हुए हैं। इस बात को दर्शाने के लिए ही दो तालाब का जल आपस में मिला हुआ है ऐसा कौण्डिन्य देखते हैं. यह दोनों ही नक्षत्र दु:खों का कारण बनते हैं। कीड़े लगे वृक्ष और गधे की उपमा भी इसीलिए दी गई है। The ass, the worm infested tree, cow is unable to eat, two ponds are connected and its water is mixing in each other, suffering etc. only tells that Brahmin was in Shani dasha. In first part when Jupiter was active he had prosperity and when Saturn became active he faced hardship and suffering. यह व्रत उत्तरभाद्रपद में ही करना चाहिए। कौण्डिन्य का नाम पाशुपत सम्प्रदाय में आचार्य के रूप में आता है. यह एक महत्वपूर्ण बात सामने है कि पूर्वभाद्रपद और उत्तरभाद्रपद दोनों नक्षत्र युग्म है और दोनों की ऊर्जा कहीं न कहीं एकदूसरे से जुड़ी हुई है। ज्योतिष प्रेडिक्शन में इसका ध्यान रखना चाहिए.।

English here