
भगवान ने यह सृष्टि ज्ञान और कर्म से निर्मित की थी. इस सृष्टि के प्रकट करने से पूर्व उन्होंने प्रजापति ब्रह्मा को उत्पन्न किया, तदन्तर उन्होंने वेद को उत्पन्न किया और उन्हें इसका ज्ञान प्रदान किया “तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये”. वेदों में समस्त कर्म विज्ञान गुप्त रूप से उपस्थित है. वेदों से कर्म उत्पन्न हुआ और कर्म से यह जगत प्रकट हुआ इसलिए संसार कर्म में ही प्रतिष्ठित माना जाता है. भगवद्गीता में कर्मयोग के सन्दर्भ में यह कहा गया है ” न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्’ अर्थात कोई भी इंसान, चाहे वह ज्ञानी हो या अज्ञानी, कर्म किए बिना नहीं रह सकता. जब तक देह है तब तक कर्म है. कर्म की इस प्रकृति के कारण ही यह उपदेश दिया गया है कि कर्म कैसे करें ताकि कर्म का कोई बंधन न हो? धर्म इसी के लिए है, यह मनुष्यों को मार्गदर्शन देता है कि कर्म को कैसे करें, कौन से कर्म आत्म कल्याण में बाधक हैं, कौन से कर्म अधोगति का कारण बनते हैं, कौन से कर्म मुक्ति और सिद्धि प्रदान करते हैं ! वेद और कर्म दोनों में ही उस ब्रह्म की ही प्रतिष्ठा है इसलिए भगवद्गीता कहती है –
ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना।।4.24।।
जिस यज्ञमें अर्पण भी ब्रह्म है, हवी भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप कर्ताके द्वारा ब्रह्मरूप अग्निमें आहुति देनारूप क्रिया भी ब्रह्म है, (ऐसे यज्ञको करनेवाले) जिस मनुष्यकी ब्रह्ममें ही कर्म-समाधि हो गयी है, उसके द्वारा प्राप्त करनेयोग्य फल भी ब्रह्म ही है.
सब कुछ यज्ञ में ही प्रतिष्ठित है इसलिए कोई भी कर्म यज्ञ की तरह ही धर्म पूर्वक करना चाहिए. यह कर्मयोग की मूलभावना है. इस सन्दर्भ में एक उदाहरण धन अन्नादि का लेते हैं और देखते हैं हिन्दुओं के सबसे प्रतिष्ठित धर्म ग्रन्थ क्या कहते हैं ? प्रजापति ब्रह्मा ने सृष्टि को उत्पन्न करके सबके लिए अन्न निश्चित किया. देवताओं, पितरों, मनुष्यों और अन्यान्य जीवों के लिए अन्न निश्चित है. सृष्टि में जो कुछ सबके भोग के लिए भगवान ने बनाया है उसपर सबका एक समान अधिकार है. अन्न सबका सम्मिलित भोजन है और सबका सम्मिलित स्व-धन है. सबका भोज्य होने के कारण ही उस अन्न का मुख में दिया जाने वाला ग्रास भी दूसरे को पीड़ा देने वाला देखा जाता है क्योकि उस पर ‘यह मेरा हो’ इस प्रकार सबकी आशा बंधी रहती है. इस कारण यह देखा जाता है कि भूखा गरीब यदि अन्न को देखता है और यह अन्न उसे नहीं मिलता तो भोक्ता उस अन्न से पीड़ित हो जाता है. अक्सर वह अन्न विष बन जाता है और भोक्ता को दवाई खानी पड़ती है. उसकी हाय लग जाती है. यह आह या हाय का कंसेप्ट भी इसी से जुड़ा हुआ है. हाय लगना इसीलिए सम्भव है क्योकि सृष्टि में सबकुछ परमात्मा ने सबके लिए बनाया है. सबका उस पर समान अधिकार है. गंगा सबकी मां है, सबके लिए एक समान है. लेकिन चोर, धूर्त और दुष्ट अपने लिए VIP व्यवस्था बना कर स्नान करते हैं.
यदि किसी के धन पर किसी गरीब की आह लग जाती है तो उसमे यह आध्यात्म ही कारण है. “दुष्कृतं हि मनुष्याणां अन्नमाश्रित्य तिष्ठते ” द्वारा भी यह बात कही गई है. इस अर्थ में भगवद्गीता और मनुस्मृति एक ही बात को स्थापित करते हैं. यदि तुम सनातन धर्म के शास्त्र की बात मानो तो धन का अनैतिक रूप से संग्रह करने वाले पूंजीपति चोर कहे जायेंगे. क्योंकि गीता में लिखा है “अप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव स:” जो धन, अन्न आदि बिना बांटे सिर्फ स्वयं के भोग के लिए रखता है, वह चोर है. जो धन, अन्न आदि बिना बांटे स्वयं अपने भोग के लिए रखता है उसे मनुस्मृति में भ्रूणहत्या के बराबर कहा गया है. इस कारण मनुस्मृति उसी ब्राह्मण को श्रेष्ठ मानती है जो अपने लिए धन-अन्नादि एक दिन या तीन दिन से ज्यादा संग्रह नहीं करता. ऐसे ब्राह्मण को दान भगवान को प्राप्त होता है. गृहस्थ ब्राह्मण के लिए तीन महीने, छह महीने या साल भर का संग्रह तक की छुट दी गई है इससे ज्यादा नहीं. संग्रह ही पाप कर्म है. मनुष्य संग्रह इसलिए करता है क्योकि उसे ईश्वर पर विश्वास नहीं है. आस्तिक संग्रह नहीं करते, नास्तिक संग्रह करते हैं. यह बात बाईबिल में Matthew 6:26 में भी कही है “Look at the birds in the sky! They don’t plant or harvest. They don’t even store grain in barns. Yet your Father in heaven takes care of them.” ईश्वरीय प्रज्ञा से सम्पन्न आचार्य या गुरुओं ने इस रहस्य को समझा और उसके अनुसार ही उपदेश किया. भगवद्गीता में स्वयं भगवान ही इसका उपदेश करते हैं. भगवान ने इसलिए यह भी कहा है कि जो मनुष्य ईश्वरीय प्रज्ञा के अनुसार चलता है उसके लिए सब कुछ अक्षय हो जाता है.