
पुराण में यह अलंकारिक वर्णन है कि राम रावण युद्ध में ब्रह्मा जी ने स्वयं देवी का अनुष्ठान राम की विजय के लिए किया था. यह वर्णन यह बताने के लिए ऋषियों, ब्राह्मण वर्ग ने राम की युद्ध में विजय के लिए अनेक प्रकार के तांत्रिक अनुष्ठान का प्रारंभ किया था. ये अनुष्ठान मूलभूत रूप से दुर्गा और काली के अनुष्ठान थे. ब्रह्मा द्वारा की गई देवी स्तुति में महाकाली के घोर बीज लगे हुए हैं जैसे स्फ्रें, स्फ़्रां. इस स्तुति के सातवे श्लोक में ब्रह्मा जी स्वयं दुर्गा के नवार्ण मंत्र का इंगित से वर्णन करते हैं जिसमें माया और चंडिका का चोंकार बीज है.
पुराण में यह मन्त्र-तन्त्र वेदों से नहीं आया, यह तंत्रागम से आया. जिस समय पुराण लिखे गए उस समय तंत्र देश में प्रभावी था और वामाचार गुप्त रूप से पुराण पुजारी करते रहे थे. पौराणिक श्री कृष्ण भी वाममार्गी तंत्र की उपासना करते हुए दिखते हैं. वाम मार्ग तंत्र में होता है जो अवैदिक है. ब्रह्मा जी स्तुति में कहते हैं कि राम का वाम मार्ग से अभ्युदय कीजिए.

वाम मार्ग में 5 म होते हैं मांस, मदिरा, मैथुन, मुद्रा, मत्स्य , ये सब किया जाता है. राम स्वयं वाम मार्ग के उपासक थे, यह देवी भागवत पुराण से स्पष्ट है. मैंने पहले यह स्पष्ट रूप से लिखा था कि रासलीला एक तांत्रिक कर्म है और यह वाममार्गीयों का कर्म है. पुराणों में यह जिक्र है कि रासलीला से पूर्व कृष्ण ने तंत्र विधि से दुर्गा की उपासना की थी और उन्हें रासमंडल की अधिष्ठात्री के रूप में आमन्त्रित किया था. भागवत पुराण में गोपियों का “वीर” सम्बोधन तंत्र का ही सम्बोधन है. भागवत पुराण दशम स्कन्ध के प्रारम्भ में राजा परीक्षित के प्रश्न के उत्तर में यह स्थापना की गई है कि सेक्स द्वारा भी अर्थात काम भाव से भी ईश्वर की प्राप्ति होती है.
पुराण में तन्त्र का बेध है और अपने विकृत रूप में है और यह सर्वथा अवैदिक है. अग्नि पुराण जैसे कुछ पुराणों में तो तन्त्र के मंत्रादि प्राप्त होते हैं. पुराणों में तन्त्र का प्रवेश वाममार्गी पुराण बाबाओं और पुजारियों के द्वारा हुआ. ये पुजारी और मठाधीश वेश्यागामी और दुराचारी थे. दूसरी तरफ देखें तो ज्यादातर वैष्णव मंत्रादि और यंत्रादि शैव और शाक्तों से की गई एक चोरी है. क्लीं काम बीज है, यह सनातन वैदिक धर्म की किसी श्रुति में नहीं मिलेगा. क्या पारगामी ऋषियों को यह पता नहीं था? पुराणों के लेखक वेदव्यास नहीं हैं बल्कि वाममार्गी बाबा और पुजारी हैं. वेदव्यास कभी ऐसा लेखन नहीं कर सकते जैसा विकृत लेखन पुराणों में प्राप्त होता है. भागवत पुराण में झूठ फैलाया गया है कि पुराणों का लेखन वेदव्यास ने किया था. भागवत में पुराणों की संख्या अठारह बताई गई है –
ब्राह्मं पाद्मं वैष्णवं च शैवं लैङ्गं सगारुडं ।
नारदीयं भागवतमाग्नेयं स्कान्दसंज्ञितम् ॥ २३ ॥
भविष्यं ब्रह्मवैवर्तं मार्कण्डेयं सवामनम् ।
वाराहं मात्स्यं कौर्मं च ब्रह्माण्डाख्यमिति त्रिषट् ॥ २४ ॥
भविष्य पुराण पांचवी शताब्दी में जन्म वराहमिहिर और सत्रहवी शताब्दी में जन्मे भट्टोजी दीक्षित के जन्म का वर्णन करता है. इस काल में वेदव्यास उपस्थित नहीं थे लेकिन उन्होंने ही यह पुराण भी लिखा है. भविष्यपुराण में वराहमिहिर के जन्म का वर्णन देखें –

इससे स्पष्ट है कि पुराण धूर्त बाबाओं की रचना है इसका वेदव्यास जैसे प्रज्ञावान भगवान तुल्य आचार्य से कोई लेना देना नहीं है. यह कारण है कि पुराण एक गपोड़शंख है और मिथ्या कहानियों से भरा हुआ है. इससे हिन्दुओं का कल्याण नहीं हुआ. मिथ्या ज्ञान अर्थात झूठ जन्मान्तरों तक अंधकार में रख सकता है. वेदव्यास का कहना है –
“पूर्वमर्थान्तरे न्यस्ता कालान्तरगता मति:” कोई मिथ्याज्ञान जो किसी के चित्त में स्थापित कर दिया जाता है तो वह निश्चित हो जाता है और जन्मान्तरों तक वह उसे ढ़ोता रह सकता है. ऐसे में उसे वैदिक श्रुति का भी सत्य बताया जाएगा तो उसे वह स्वीकार नहीं करेगा. मिथ्या से मिथ्या की ही उत्पत्ति होती है, सत्य ज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती है. वेदांत के आचार्यों ने अनुमान को प्रमाण माना है जिसका तर्क है कि “जहाँ जहाँ धुंआ होता है वहां आग होती है”. यदि भविष्यपुराण गपोड़शंख है तो सभी पुराण गपोड़शंख हैं. ऐसे ही अवतारों के बारे पौराणिक गपोड़शंख है. कोई ऐसा कृष्ण नहीं था जिसने 8 किलोमीटर में फैला गोवर्धन उठाया था. जिस तरह वराहमिहिर की कथा लिखी गई है वैसे ही एक भोगी राजा कृष्ण की भी कहानी लिखी गई थी.
हिन्दू इस पौराणिक गपोड़शंख के कारण ही 11वीं शताब्दी के बाद गुलाम हो गया था और ज्ञान विज्ञान में पिछड़ गया था. सत्रहवी शताब्दी में जन्मे भट्टोजी दीक्षित के जन्म का पौराणिक वर्णन के कारण स्पष्ट है कि भविष्यपुराण कहीं अठारहवी शताब्दी के बाद ही लिखा गया होगा.