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सनातन धर्म में कथा का प्रयोजन तत्वज्ञान है. पुराण या रामायण कथा उसके द्वारा किया जाता है जो श्रोत्रिय ब्राह्मण हो, जिसका यज्ञोपवीत हुआ हो, जो त्रिकाल संध्या करता हो, जो ईश्वर की उपासना में संलग्न हो, जो गृहस्थ अथवा मुनि या सन्यासी हो. जो अपने वेदांत ज्ञान और वक्तृता से श्रोता के भीतर जिज्ञासा उत्पन्न करने में सक्षम हो, जो श्रोता के चित्त का मर्जन कर उसके भीतर भक्ति का उद्रेक कर सके, उसे कथा कहने का अधिकार है. भागवत आदि कथा हिन्दू चार प्रयोजनों से करवाता है, जैसा भगवद्गीता में कहा गया है –
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।7.16।।
हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुनव ! पवित्र कर्म करनेवाले अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी — ये चार प्रकारके मनुष्य मेरा भजन करते हैं अर्थात् मेरे शरण होते हैं।

इसमें अर्थार्थी या आर्त को उसके फल की प्राप्ति किसी हिजड़े के मुख से कथा सुन कर नहीं हो सकती है. आर्त के अंतर्गत उनको भी सम्मिलित करना चाहिए जो सन्तानहीन हैं और पितृलोक नष्ट होने से भयभीत होकर कथा अनुष्ठान करवाते हैं कि उन्हें सन्तान की प्राप्ति होगी. इसके इतर श्रुति में सन्तान को वित्त ही कहा गया है. गुरु बृहस्पति के आशीर्वाद से ही अर्थ और सन्तान की प्राप्ति होती है. ऐसे में हिजड़े के मुख से कथा सुनने से हर प्रकार की हानि होती है और परलोक भी बिगड़ जाता है. फिर ज्ञान की जिज्ञासा, ज्ञान की प्राप्ति और मोक्ष का तो कहना ही क्या है.

भागवत पुराण में लिखा है कि भागवत पुराण वेदांत का सार है “सर्ववेदान्तसारं हि श्रीभागवतमिष्यते ।” और इसका प्रयोजन अद्वैत ज्ञान और मोक्ष है -.
सर्ववेदान्तसारं यद ब्रह्मात्मैकत्वलक्षणम् ।
वस्त्वद्वितीयं तन्निष्ठं कैवल्यैकप्रयोजनम् ॥ १२ ॥

भागवत पुराण में यह भी कहा गया है कि इसका उपदेश स्वयं विष्णु भगवान ने चतुश्लोकी में ब्रह्मा जी को प्रदान किया था और ब्रह्मा जी ने ही इसका विस्तार नारद आदि महर्षियों से यह पुराण कहा था. इस पुराण का उपदेश नारद ने महर्षि वेदव्यास को किया था जिन्होंने उस संक्षिप्त कथा को लोककल्याण के लिए विस्तार से लिखा था. भागवत कथा सृष्टि की प्रथम स्त्री शतरूपा से जुडी हुई है न कि हिजड़े से –
शतरूपा च या स्त्रीणामाद्या प्रकृतिरुत्तमा ।
सन्तानो धर्मपत्नीनां कर्दमस्य प्रजापते: ॥ १२ ॥
पुराणों को वेदव्यास ने अपने शिष्यों को प्रदान किया था जिनके द्वारा इसका प्रवचन किया गया था. भागवत पुराण के प्रथम वक्ता जन्म से ही सन्यासी शुकदेव थे जिन्हें वेदांत की परम्परा में प्रमुख गुरु माना गया है.
शंकरं शंकराचार्यं केशवं बादरायणम्।
सूत्रभाष्यकृतौ वन्दे भगवन्तौ पुनः पुनः।।
नारायणं पद्मभुवं वसिष्ठं शक्तिं च तत्पुत्रपराशरं च।
व्यासं शुकं गौडपदं महान्तं गोविन्दयोगीन्द्रमथास्य शिष्यम्।।

व्यास देव, शुकदेव, गौड़पादाचार्य से लेकर आदि शंकराचार्य तक यह परम्परा है. वेदांत के आचार्य शुकदेव भागवत जैसे पुराण के वक्ता हैं, ऐसे में हिजड़ा इसकी कथा कैसे कर सकता है? जिस प्रकार से शास्त्र के अनुसार मन्दिर की प्राणप्रतिष्ठा या तो परम्परा के श्रेष्ठ सन्यासी द्वारा कराया जा सकता है या गृहस्थ ब्राह्मण इसकी स्थापना कर सकता है, उसी प्रकार कथा और धर्म का उपदेश है. सनातन धर्म में आश्रम चार ही हैं, कोई हिजड़ाश्रम व्यवस्था नहीं है. इस प्रकार हर दृष्टि से हिजड़ा न तो कथा कह सकता है और न सन्यासी हो सकता है. कलियुग के प्रभाव से धर्म को बचाना भी बहुत बड़ा धर्म का कार्य है.

लिङ्गमेवाश्रमख्यातावन्योन्यापत्तिकारणम् ।
अवृत्त्या न्यायदौर्बल्यं पाण्डित्ये चापलं वच: ॥
कलियुग का चरित्र है कि जो आश्रम हैं उनका गुण दूषित हो जायेगा, सन्यासआश्रम में गृहस्थ आश्रम या हिजड़ों और वेश्याओं का संक्रमण होने लगेगा और सन्यासी औरतों के साथ रहने लग जायेगा. सनातन धर्म को कलियुग के प्रभाव बचाना सबका कर्तव्य है.