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सभी नाम प्रणव की अभिव्यक्ति हैं. सभी नाम ईश्वर के ही नाम हैं. कुछ नाम उनकी महिमा में लिखे गये हैं, कुछ नाम उनके चरित्र और गुणों का वर्णन करते हैं, कुछ नाम उनके कृत्यों का वर्णन करते हैं और कुछ नाम उनके परा स्वरूप का वर्णन करते हैं. माता दुर्गा आद्य शक्ति हैं उनके अनेकानेक नाम हैं. देवी सहस्रनाम ने इन्हें विश्वमाता, रमा, महालक्ष्मी, रुद्राणी, शिव प्रिया, ब्रह्माणी इत्यादि नाम से उनका वर्णन किया गया है, वहीं उन्हें गोविन्दरूपिणी भी कहा गया है. देवताओं के शतनाम या सहस्रनाम भी मन्त्र रूप ही है. सब कुछ प्रणव शब्द ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है. मन्त्र शास्त्र का ज्ञान सभी को नहीं होता और मन्त्रों के साथ अनेक प्रकार का विधि-निषेध होता है, मन्त्र सदैव गुरु दीक्षा के बाद ही जपा जा सकता है. ऐसे में आमजन के लिए नाम मन्त्र बताये गये हैं. किसी देवता के नाम मन्त्र के जप में किसी दीक्षा की जरूरत नहीं होती. लेकिन क्या कोई नाम मन्त्र किसी को मुक्त कर सकता है? नाम मन्त्र का प्रचलन वैष्णवों की देन है. वैष्णव मूलभूत रूप से प्रपंचवादी और मायिक होते हैं इसलिए उन्होंने नाम मन्त्र को प्राथमिकता दी होगी.

कलिसन्तरणोपनिषद बहुत बाद का उपनिषद है जिसे कृष्ण यजुर्वेद में प्रक्षिप्त कर दिया गया था. कृष्ण यजुर्वेद वैसे भी कृष्ण होने के कारण शुद्ध नहीं माना जाता है. इस उपनिषद में कुछ भी नहीं कहा गया है. यहाँ नाम की महिमा का संक्षिप्त वर्णन है और कहा गया है कि कलियुग में नाम जप ही मनुष्य का तारक है. तीन नामों “हरे-राम-कृष्ण” द्वारा ही “हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे, हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे, ” इस नाम मन्त्र का निर्माण किया गया है. वैष्णव इस नाम मन्त्र को तारने वाला बताते हैं.

जबकि श्रुति इसको कर्ममय ही मानती है. उपनिषद में नारद को सनतकुमार ने उपदेश किया और कहा कि नाम की गति ब्रह्मज्ञान में नहीं है क्योकि नाम-नामी का भेद विकार ही है. नारद ने कहा कि मैं वेदों के मन्त्र को जानने वाला मन्त्रवेत्ता हूँ लेकिन ब्रह्मवेत्ता नहीं हूँ. मैं आत्मज्ञान न होने से शोक को प्राप्त हो रहा हूँ, मुझे वह आत्मज्ञान दीजिये जिससे मैं शोक को पार कर जाऊं. सनतकुमार कहते है कि ये वेदादि, पुराण, इतिहास, व्याकरण सब नाम ही हैं. इनकी गति ब्रह्म में नहीं है क्योंकि ये त्रिगुणात्मक हैं, मायिक हैं. भगवद्गीता में भी कहा गया है “त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।” इस प्रकार से नाम त्रिगुणात्मक होने से मायिक ही हैं. श्रुति स्पष्ट रूप से कहती भी है ” यतो वाचो निवर्तन्ते। अप्राप्य मनसा सह। आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्। न बिभेति कुतश्चनेति।” जहाँ से वाणी सहित मन उस ब्रह्म को बिना पाए ही लौट आते हैं. हिन्दू धर्म की प्रस्थानत्रयी भगवद्गीता में सिर्फ श्रुति सम्मत ईश्वर के नाम का जप का विधान किया गया है.
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।8.13।।
राम शब्द का जप करते हुए नहीं बल्कि एक अक्षर प्रणव का स्मरण करते हुए देह त्याग का आदेश दिया गया है.

मन्त्र शास्त्र के अनुसार हर नाम की अपनी गति है. हरएक नाम शब्द ब्रह्म की निम्नतर अभिव्यक्ति है. उस शब्द ब्रह्म की वेद भी अभिव्यक्ति है जो त्रिगुणात्मक है और कर्ममय है. श्रुति कहती है “मन्त्रेषु कर्माणि”. मन्त्र कर्ममय होने से पापविद्ध हो जाते हैं. शास्त्रों में यह आख्यान आता है कि मन्त्रों के कर्ममय होने से जब जब देवताओं ने इसका आश्रय लिया दैत्यों ने उनकी शक्तियों का अतिक्रमण कर उन्हें पीड़ित किया लेकिन जब उन्होंने प्रणव का आश्रय लिया तो उन्होंने दैत्यों पर विजय प्राप्त किया. मन्त्रों में प्रमुख बीज मन्त्र ही ब्रह्म के करीब माने गये हैं जैसे शाक्त प्रणव ह्रीं. यह माया बीज कहा गया है और प्रणव जैसा ही माना गया है. प्रणव के इतर कोई भी नाम ईश्वर के करीब नहीं पहुंचता है इसलिए प्रणव की ही महिमा का गायन श्रुतियों में किया गया है..