
कौशिक ऋषि के सात पुत्र थे जिनके नाम स्वसृप , क्रोधन, हिंस्र, पिशुन, कवि, वाग्दुष्ट और पितृवर्ती. जैसा नाम था वैसे ही ये सातो भाई थे. ये भी गर्ग ऋषि के शिष्य बने. सभी बड़े वेदों के ज्ञाता और तपस्वी ब्राह्मण थे. एक बार अकाल पड़ा, उस समय पितृवर्ती ने पितरों के लिए श्राद्धकर्म का प्रारम्भ किया जिसमे सभी भाई सम्मिलित थे. कालक्रम के अनुसार मृत्यु के उपरांत श्राद्ध वैगुण्य से वे सभी कर्मानुसार बहेलिया के घर में पैदा हुये. लेकिन उन्हें पूर्वजन्म की स्मृति बनी रही. सभी योग में पारंगत थे, उनका पतन सिर्फ श्राद्ध वैगुण्य से हुआ था. बहेलिया के घर जन्म हुआ लेकिन उन्हें पूर्वजन्म कि स्मृति थी, उनमे एकदिन वैराग्य हुआ और उन्होंने देह त्याग दिया. सभी भाइयों ने पुन: मृग योनी में जन्म लिया लेकिन वहां वे जातिस्मर बने रहे. उन्होंने पुन: व्रत अनशन करके देह त्याग दिया और मानसरोवर में चक्रवाक् पक्षी बन गये. उस समय ये सातो योगपारदर्शी थे. उनमे चार तो उच्चतर स्वर्गादि लोकों की तरफ चले गये लेकिन तीन योगभ्रष्ट हो गये. तीनों योगभ्रष्ट ब्राह्मण एकबार पांचाल वंश के राजा के महल में पहुंचे. वहां उस राजा को उस उद्यान में अनेक स्त्रियों के साथ क्रीडा करते देख, तीनों में पितृवर्ती को राजा बनने की इच्छा हुई. उस समय दो अन्य भाइयों को भी मंत्री बनने की आकांक्षा हुई. तीनो भाइयो में पहला पितृवर्ती ने विभ्राज का पुत्र ब्रह्मदत्त बनकर जन्म लिया और दो अन्य भाई कंडरीक और सुबालक नाम के मंत्री बने. राजा की मृत्यु के बाद ब्रह्मदत्त को राजसिंघासन प्राप्त हुआ और उसे देवल नामक राजा की कन्या सन्नति पत्नी के रूप में मिली.
ब्रह्मदत्त राजा बन कर राज करने लगा और भोग भोगने लगा. एक बार वह सन्नति के साथ उद्यान में भ्रमण कर रहा था. वहां उसने चींटियों में कलह होते देखा. चींटा काम से व्याकुल था और वह चींटी से अनुनय विनय करते हुए कह रहा था ” प्रिये ! इस जगत में तुम्हारे समान सुन्दरी कोई और दूसरी नहीं. तुम्हारा कटि प्रदेश पतला और जंघे मोटे हैं, तुम्हारे स्तनों के भार से पृथ्वी भी झुक जाती है. जिस प्रकार तुम विनम्र होकर हंसिनी की तरह चलती तब तुम मेनका से भी सुंदर लगती हो. कल्याणी मैं ती तुम्हारे बिना एकपल नहीं रह सकता. तुम इस तरह मुझसे क्यों मुंहफुला कर बैठी हुई हो?
क्रोध से भरी हुई चींटी ने उस कीट से कहा “शठ! तू व्यर्थ की बकवास न कर. धूर्त ! अभी कल ही तुमने मुझे छोड़ कर लड्डू का चूर्ण दूसरी चींटी को दिया था. उसका तो मुंह भी कोई देखना नहीं चाहता. मुझसे दूर हट धूर्त !
चींटा बोला – वरवर्णिनी ! तुम्हारे जैसी रंग वाली होने से मैंने भ्रम में दूसरी चींटी को लड्डू दे दिया था. मुझसे बड़ी गलती हो गई. अब ऐसी भूल नहीं होगी. मैं विष्णु जी की दुहाई देता हूँ.
चींटी फिर भडकी और बोली – शठ तूने अभी कहा मेरे जैसे वर्ण वाली होने से तुझे भ्रम हुआ. हमसे सुंदर कोई नहीं, मेरा स्वेत वर्ण जैसा भी किसी का नहीं. झूठा, हमारे पास दिखना मत.
चींटा ने फिर बहुत दुहाई दी और पैर पड़ा तब वह चींटी प्रसन्न हो गई.
यह सब देख ब्रह्मदत्त को बड़ी हंसी आई. ब्रह्मदत्त की पत्नी सन्नति ने पूछा – आप यह अकस्मात किस पर अट्टहास कर के हंस रहे हैं?
राजा ब्रह्मदत्त ने रानी को चींटी-चींटा की देखी सुनी कथा बताई और कहा कि दूसरी कोई और बात नहीं है. रानी सन्नति को ब्रह्मदत्त पर विश्वास नहीं हुआ. उसने कहा- भगवान के अलावा भला चींटी-चींटा जैसे तुच्छ जीवों का वार्तालाप मनुष्य कैसे सुन सकता है? आपने मेरी ही हंसी उड़ाई है. मैं ऐसे अपमान के साथ नही न जीना चाहती. रानी मरने का सकल्प लेकर कोप भवन में प्रस्थान किया.
ब्रह्मदत्त को भी यह रहस्य पता नहीं था कि उन्हें यह ज्ञान कैसे है? ब्रह्मदत्त ने सात रात रहस्य को जानने की इच्छा से जागरण कर भगवान से प्रार्थना की. सातवे दिन भगवान प्रसन्न हुए और कहा – हे राजन ! प्रातःकाल में तुम्हारे नगर में भ्रमण करता हुआ ब्राह्मण जो कहेगा, उससे तुम्हे रहस्य का ज्ञान हो जायेगा.
प्रातःकाल में जब ब्रह्मदत्त अपने भाई मंत्रियों और पत्नी सन्नति के साथ नगर भ्रमण पर निकले तो उन्हें एक ब्राह्मण आता दिखाई पड़ा.
ब्राह्मण कह रहा था – जो पहले कुरुक्षेत्र में ब्राह्मण थे, दासपुर में व्याध थे, कालंजर पर्वत पर मृग थे और मानसरोवर पर सात चक्रवाक के रूप में जन्म ग्रहण किया, वे ही सिद्ध यहाँ निवास कर रहे हैं.
ऋषियों की यह बात सुनकर ब्राह्मदत्त शोकाकुल होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा. उसी समय उसे फिर पूर्व जन्म की स्मृति हुई. उसके दोनों मंत्री भाई भी शोक से मुर्छित होकर गिर पड़े और विलाप करने लगे – “हाय ! कर्मबंधन में फंस कर हम योगभ्रष्ट हो गये.” अगले दिन ब्रह्मदत्त ने ब्राह्मणों को अनेक प्रकार के दान इत्यादि दिए और पुत्र को राज्य पर अभिषिक्त कर दिया और सन्यास ग्रहण कर जंगल में तपस्या के लिए प्रस्थान किया.