
शास्त्रों में कई प्रसंग और उद्धरण हैं जिसमें कहा गया है कि देवता जब नहीं चाहते तब मनुष्य उनकी उपासना भी नहीं कर सकता है. मनुष्य देवता की उपासना और उनसे संसिद्धि उनके अनुग्रह से ही प्राप्त करता है. अनुग्रह देवी भगवान की एक शक्ति हैं. ऐसा दैत्य राज बलि के प्रसंग में आता है कि शुक्राचार्य की मदद से बलि ने अनेको महान यज्ञ किये, धर्म और दान किये जिससे वह महान शक्तिशाली हो गया और उसने देवराज इंद्र को सत्ता से बेदखल कर दिया. शुक्राचार्य के कारण वह विष्णुद्रोही हो गया था. एक दिन अपने पिता प्रहलाद के समक्ष उसने भगवान विष्णु की बड़ी भर्त्सना की और कहा कि जिसे आप भगवान कहते हैं उस हरि से अनेक बलवान दैत्य हमारे अधिकार में हैं. क्या अपने विप्रचित्ति, शिवि, शंख, आया:शंख, अश्वशिरा,महाहनु, प्रताप, शुम्भ, प्रघस इत्यादि दैत्यों का नाम नहीं सुना? ये महाबली महान पराक्रमी है, इनके आधे पराक्रम के बराबर भी आपका हरि नहीं है.
ऐसा सुन कर पिता परम वैष्णव भक्त प्रहलाद ने बलि को शाप देते हुए कहा – “रे दुष्ट, तुम जैसा दुर्बुद्धि और अविवेकी राजा होने के कारण दैत्य और दानवों का विनाश हो जाएगा. ऐसा कोई पापी ही अजन्मा, सर्वव्यापी नारायण की तुलना दैत्यों के बल से करेगा. भगवान नारायण ही संसार के गुरु हैं. विष्णु निंदा करने के कारण मैं तुझे श्राप देता हूँ कि तुम इस लोक में शीघ्र ही ऐश्वर्य से भ्रष्ट हो जाओगे ” जब दैत्य राज बलि ने पिता से क्षमा मांगी तो प्रहलाद ने कहा कि एकमात्र उपाय भगवान हरि शरण है. तुम अपना सर्वस्व उनको समर्पित कर उनकी शरण लो. वे ही संसार के रक्षक हैं. जब शाप घटित होगा तब मेरा स्मरण करना. तब मै प्रयत्न करूंगा कि तुम्हारा कल्याण हो.
भगवान विष्णु आदिती के गर्भ से वामन रूप में अवतरित हो चुके थे. ब्रह्मा जी ने उनका जातकर्म संस्कार आदि सम्पन्न किया. सभी देवताओं ने उनका दर्शन किया और उनकी स्तुति की थी. वामन भगवान ने कहा -मैं इंद्र को पुन: त्रिभुवन का राज्य प्रदान करूंगा. माता आदिती की प्रार्थना से प्रसन्न होकर पूर्व काल में मैंने यह प्रतिज्ञा की थी. उस समय ब्रह्मा जी ने उन्हें कृष्ण मृग का चर्म, देव गुरु बृहस्पति ने यज्ञोपवीत, महर्षि मारीचि ने पलाश दंड, वसिष्ठ ने कमंडल, अंगीरा ने कुशासन और वेद, पुलह ने अक्षसूत्र तथा पुलस्त्य ने दो श्वेत वस्त्र प्रदान किया. उस समय सभी श्रुतियां प्रणव घोष के साथ प्रकट हुईं और भगवान वामन के श्रीअंग में प्रविष्ट हो गईं. उसी समय भगवान वामन जटा, दंड, क्षत्र और कमंडल धारण किये हुए बलि के यज्ञ स्थल की प्रस्थान किया.
राजा बलि ने शुक्राचार्य से पूछा – गुरु महाराज, किस कारण पृथ्वी संक्षुब्ध लगती है और हमारे यज्ञ की बलि उन्हें प्राप्त नहीं हो रही है जिन्हें प्रदान की जा रही है.
शुक्राचार्य ने कहा -दैत्यराज भगवान विष्णु आदिती के घर प्रकट हो चुके हैं. वे यज्ञ के भोक्ता हैं. पंचतत्व उन्हीं के स्वरूप हैं. अग्नि देव उन्ही के आदेश से अपने कर्मों का सम्पादन करते हैं. उनके कोप के कारण ही यज्ञ भाग उन शक्तियों को प्राप्त नहीं हो रहे हैं. तुम्हे इंद्र के पद पर प्रतिष्ठित करने वाला यह यज्ञ निष्फल हो रहा. यज्ञभाग के अधिकारी देवगण हैं लेकिन तुमने असुरों और दैत्यों को इसका अधिकारी बना दिया है. राजन भगवान बलि इस यज्ञ स्थल अवश्य आएंगे. तुम उन्हें कुछ भी देने की प्रतिज्ञा मत करना. तुम उनके मांगने ऐसा कहना “देव ! मैं आपको कुछ भी देने में समर्थ नहीं हूँ”
बलि ने कहा – आचार्य, यदि स्वयं जनार्दन ही मुझे कुछ मांगे तो मुझे उन्हें अवश्य प्रदान करना चाहिए. शास्त्रों में कहा गया है कि सभी तप, शौच, व्रत, दान, पूजन द्वारा वे प्राप्तव्य हैं. उन्हें प्राप्त करने के लिए सभी क्रियाएं की जाती हैं. यदि उनके मांगने पर भी मैं “नहीं है, नहीं है ” कहूँ तो मेरे जन्म और तपस्या का क्या फल ? अतएव मैं उन्हें दान आवश्य दूंगा.
उसी समय भगवान वामन यज्ञ स्थल में प्रकट हुए और अग्निस्थापन के लिए तीन पग जमीन दान करने का बलि से आग्रह किया. दैत्य राज बलि ने दान का संकल्प लिया और संकल्प का जल जमीन पर गिरते ही भगवान वामन ने अपना सर्वदेवमय विशाल स्वरूप प्रकट किया और बलि का सम्पूर्ण विजित राज्य नाप लिया. उन्होंने इंद्र को पुन: राज्य प्रदान किया और बलि को पाताल लोक का स्वामी बना दिया.
कथा कहती है कि अधर्म करने से देव शक्तियाँ रुष्ट हो जाती हैं तब वे कुछ स्वीकार नहीं करती हैं. दुर्गा शप्तशती में कहा गया है कि उनकी कृपा से ही पुण्यात्मा धर्म-कर्म, दानआदि करता है, जब उनकी कृपा होती है तभी मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है.
धर्म्याणि देवि सकलानि सदैव कर्माण्यत्यादृतः प्रतिदिनं सुकृती करोति।
स्वर्गं प्रयाति च ततो भवतीप्रसादात् लोकत्रयेऽपि फलदा ननु देवि तेन।।