
भगवद्गीता जैसे उदात्त ग्रन्थ के लिए उत्सव मनाने का औचित्य मुझे समझ में आता है लेकिन यह 5151 वर्ष पहले पैदा हुई थी इसको लेकर संदेह है. द्वापर के काल-खंड का निर्णय करना बहुत कठिन है इसलिए बेहतर होता सिर्फ उत्सव को मनाते और कुछ सार्थक बहस करते. गीता जयंती प्रशासनिक स्तर पर सन 1989 से मनाया जा रहा है. यह एक राजनीतिक पहल थी. गीता जयंती मार्गशीर्ष (अगहन) महीने के शुक्ल पक्ष के 11वें दिन शुक्ल पक्ष की मोक्षदा एकादशी को मनाया जाता है. इस वर्ष 2024 में गीता जयंती का पर्व बुधवार, 11 दिसंबर को मनाया जाएगा. इस समय देश को धार्मिक राजनीति नहीं सार्थक काम और सार्थक बहसों की जरुरत है. मसलन हम आधुनिकता के परिप्रेक्ष्य में भगवदगीता पर एक धर्म सभा बुलाते और उन विषयों पर चर्चा करते जिनसे देश बड़ी मुसीबत में है. उन पर चर्चा करते जिनसे भूमंडल के लोग परेशान हैं, हम ग्लोबल वार्मिंग पर चर्चा करते जिससे दुनिया का पर्यावरण खतरे में पड़ गया है. इस परिप्रेक्ष्य में भगवदगीता हमारा मार्ग प्रदर्शक हो सकती है. भगवदगीता में श्री कृष्ण ने कहा है:
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ।।
यदि हम प्रकृति का दोहन करते हैं तो हमें प्रकृति को वापस भी तो करना चाहिए ! यह एक उच्च अध्यात्मिक भाव है जिसको हम नहीं समझ पा रहे हैं. वैष्णव सिद्ध श्री महायोगी देवरहा बाबा नें एक बार गंगा के जल से ही हवन करवा दिया था लेकिन जितना जल घी के रूप में प्रयोग हुआ था, उसे उन्होंने यजमान से मंगवाकर गंगा जल में डलवा दिया. लोगों नें पूछा “ऐसा क्यों कर रहे हो बाबा?” तो देवरहा बाबा नें कहा जिस प्रकृति से तुम लेते हो उसको वापस भी करना तुम्हारा फर्ज है, ऐसा न करने से पाप होता है ! यह एक आध्यात्मिक भाव है जिसका संस्कार आध्यात्म से आता है.
देश अब कब विश्वगुरु बनेगा पता नहीं लेकिन यह भ्रष्टाचार, समाजिक जुर्म, बलात्कार और वेश्यावृत्ति में विश्व में सबसे आगे जा चुका है. साधु महात्माओं के इस देश नें यह स्थिति कैसी पैदा की है? कहाँ चूक हुई है !! इस पर चर्चा ज्यादा महत्वपूर्ण है. हिंदू समाज में ऐसा कभी नहीं रहा. भगवदगीता में कृष्ण नें कहा है : “धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ: – हे अर्जुन! मैं वहीँ वासनाएं और इच्छायें हूँ जो धर्म के अविरुद्ध हैं अर्थात् वे जो धर्म की वृद्धि करती हैं और व्यक्ति को सत्य तक ले जाती हैं !” हम इस पर न तो चलते हैं और न ही इसको मानते हैं. देश और समाज का नेतृत्व करने वाले नेताओं लालच अपने चरम स्तर पर है, जिसके लिए वे किसी सीमा तक चले जाते हैं. सत्ता के लिए एक भारतीय को दूसरे भारतीय से लड़ाया जा रहा है, उनपर अत्याचार किया जा रहा है, घर ढहाए जा रहे हैं. यह भी वस्तुतः पर्यावरण का ही विषय है. सृष्टि की एकतानता, सामजस्य जब बिगड़ता तब विप्लव आता ही है. इसको प्राचीन ऋषियों ने समझा था इसलिए भगवद्गीता में इसके लिए उपदेश किया गया है. भगवद्गीता कहती है कि “जो केवल अपने लिये ही पकाते अर्थात् सब कर्म करते हैं, वे पापीलोग तो पापका ही भक्षण करते हैं” अर्थात जो लोककल्याण की परवा किये बिना अपने लिए पूंजी का संग्रह करता है वह पापी है बल्कि एक स्थान पर भगवद्गीता चोर भी कहती है. आसुरी सम्पद का वर्णन करते हुए इन्हें संसार का नाश करने वाला कहती है. वह भारतीय जीवन कहाँ विलुप्त हो गया जिसमें अध्यात्मिक-अधिदैविक और अधिभौतिक इन तीन स्तरों पर पर्यावरण की संकल्पना की गई थी? क्या हमें अभिज्ञान शाकुंतलम का वह दृश्य याद है जिसमें पूरा वन शकुन्तला का विरोध करता है !
भो भोः संनिहितास्तपोवनतरवः |
पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं युष्मास्वपीतेषु या.
नादत्ते प्रियमण्डनापि भवतां स्नेहेन या पल्लवम् ।
आद्ये वः प्रथमप्रसूतिसमये यस्या भवत्युत्सवः.
सेयम् याति शकुन्तला पतिगृहं सर्वैरनुज्ञाप्यताम् ॥
पेड़ कहते हैं- देखो ! देखो ! वही शकुन्तला अपने पति के घर जा रही है जिसने हमें जल दिए बगैर स्वयं कभी जल ग्रहण नहीं किया. चलो सभी मिलकर उसे न जाने के लिए कहें.फिर कण्व ऋषि शकुंतला को कहते हैं, “पुत्री उन दरख्तों से भी विदा लो जिनकी गोंद में तुम खेली हो और बड़ी हुयी हो. जाओ पुत्री, उनका जल से अभिसिंचन करो, वे तुम्हारी प्रतीक्षा करते हैं !” शकुन्तला लोटे में जल ले जाती है उन पेड़ों को जल देती है और उनसे विदा लेती है.
अनुमत गमना शकुन्तला तरुभिरियम वनवास बंधुभिः !
प्रभृतविरुतम कलं यथा प्रतिवचनीकृतमेभिरीदृशं!!
शकुन्तला को जाने का इजाजत पेड़ों से मिलती है, वन में रहने वाले बंधुओं से, उन पशु पक्षियों से मिलती है जिनके बीच वह पली बढ़ी थी. कालिदास में वह सौन्दर्य दृष्टि कहाँ से आयी? यह हमारी जीवन दृष्टि रही है जिसको उन्होंने अपने काव्य में अभिव्यक्त किया है.
गीता को प्रस्थानत्रयी में शीर्ष पर रखा गया है, यह ग्रन्थ वेदांत का शीर्ष पर. देशभर में हजारों लोग प्रति दिन भगवदगीता पर ज्ञान यज्ञ करते हैं, हजारों सालों से ज्ञान यज्ञ हो रहा है लेकिन वह ज्ञान-यज्ञ देश से अन्धकार नहीं मिटा पा रहा है ! क्यों है ऐसा? क्या यज्ञ में त्रुटि है या यज्ञकर्ता में त्रुटि है ! “यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र” क्या यज्ञ ज्ञान और लोक कल्याण के लिए ही निष्काम भाव से किया जा रहा है? नहीं किया जा रहा है, यह एक कर्मकांड भर रह गया है ! आदि शंकराचार्य नें ज्ञानयज्ञ से बौद्ध धर्मानुयायियों द्वारा फैलाये गए अज्ञान को ख़त्म कर इस देश में पुनः धर्म की स्थापना किया लेकिन हम अक्षम हैं. इस संदर्भ में भी भगवद्गीता ही मार्गदर्शन कर सकती है. कलियुग में भगवद्गीता गीता से प्रेरणा साधू भी नहीं लेना चाहते. अज्ञानता को फ़ैलाने वाला लालची पुजारियों का पौराणिक धर्म प्रभावी है. धर्म के विरुद्ध काम करने वाले आसुरी सम्पद सम्पन्न साधुओं की जमात धर्म के लिए काम करने वाले दैवी सम्पद सम्पन्न साधुओं से अधिक है. यह सृष्टि में सामंजस्य खत्म हो रहा है. विश्व मानवता में तामसिक गुणों की प्रबलता से दंगा, घृणा, जुर्म , वेश्यावृत्ति, भ्रष्टाचार इत्यादि में असीम वृद्धि हुई है. भारत में 2014 के बाद से सामाजिक जुर्म, भ्रष्टाचार, वेश्यावृत्ति, बलात्कार और लूटपाट में दस गुना वृद्धि हुई है. हमें अपने भगवद्गीता से सबक लेकर अपने भीतर और बाहर पर्यावरण को शुद्ध करना होगा तभी शान्ति, विकास और जनता को सुख की प्राप्ति हो सकती है.
नान्यः पन्था विद्यतेSनाय !