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जनक की सभा में याज्ञवल्क्य है। जनक ने कुछ जीवन से जुड़े सवाल किया। याज्ञवल्क्य ने उसका उत्तर दिया।

जनक ने कहा- गुरु, दक्षिणा में गाय सहस्र देता हूं।

याज्ञवल्क्य कहते हैं- स होवाच याज्ञवल्क्य: पिता में मन्यत नाननु शिष्य हरेतेति

मेरे पिता ऐसा कहना था कि शिष्य को उपदेश से कृतार्थ किए बिना शिष्य का धन नहीं लेना चाहिए।

हे जनक मैं तुम्हे कृतार्थ करूंगा। मुझसे कहो तुम्हे पूर्व में आचार्यों ने क्या क्या बताया है। वह हम सुनें।

जनक ने कहा- भारद्वाज गोत्र में उत्पन्न आचार्य गर्दभीविपित ने उपदेश किया था कि श्रोत्र ही ब्रह्म है और श्रोत्र एक ब्रह्म को जानने का मार्ग भी है।

याज्ञवल्क्य ने कहा हे जनक उसने ठीक कहा। जिस प्रकार माता, पिता, आचार्य कहे वैसा सुनना चाहिए। क्योंकि न सुनने वाले को क्या लाभ हो सकता है? क्या भला हो सकता है ? लेकिन उस आचार्य ने इसके आयतन और प्रतिष्ठा के बारे में बताया?

जनक ने कहा – नहीं , मुझे नहीं बताया।

याज्ञवल्क्य ने कहा हे जनक तूने जो उससे सुना, वह एक ही पाद वाला है। तू आगे मुझसे सुन।

याज्ञावल्क्य ने जनक को कहा, हे सम्राट, आकाश इस श्रोत्र की प्रतिष्ठा है। ये दिशाएं ही श्रोत्र हैं।
दिशाएं अनंतता का प्रतिक हैं। किसी दिशा का कोई छोर नहीं है। दिशाएं अनंत हैं।

जो श्रोत्रिय ब्रह्मण होता है उसे सभी दिशाओं से देवता ज्ञान प्रदान करते हैं ऐसा श्रुति कहती हैं । वह देवताओं की आवाज सुनता है। उसे आकाशवाणी सुनाई पड़ती है। सभी दिशाओं

इस प्रकार याज्ञवल्क्य ने जनक को कृतार्थ किया फिर दक्षिणा ग्रहण किया।