वैष्णवों के सबसे बड़े मन्दिर तिरुपति देव स्थानम एक प्रसिद्ध मन्दिर है. इस मन्दिर में पूजा इत्यादि वैष्णव पंचरात्र विधि से की जाती है. वैष्णव पंचरात्रियों को आदि शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र के चार सूत्रों में अवैदिक बताया है क्योंकि ये वेद वाह्य देवता पैदा करते रहते हैं. वैष्णवों के चतुर्व्यूह संकर्षण, वासुदेव कृष्ण, प्रद्युम्न, और अनिरुद्ध है जो पांचरात्र के तन्त्र ग्रन्थों से उत्पन्न हुए. संकर्षण, सुदर्शन आदि के स्वरूप के वर्णन के लिए इन्होने पांचरात्र तन्त्र के ग्रन्थ लिखे. संकर्षण को श्री वैष्णवों नेअहिर्बुधन्य से विकसित किया, यह अंधेरे लोकों का शासक हैं और उसे विष्णु की तामसी कला कहा जाता है. वह रसातल का साँप है, जिसके हज़ार फ़नों पर पृथ्वी की धुरी टिकी हुई है. इनके ग्रन्थ कहते हैं “यस्येदं शक्तिमंडलं भगवतोऽनन्तमूर्ते: सहस्रशिरस एकस्मिन्नेव शीर्षाणि ध्रियामानं सिद्धार्थ इव लक्ष्यते।” भागवतम पुराण में में संकर्षण स्वयं अहिर्बुधान्य है क्योंकि उसका वर्णन वैष्णव पंचरात्र तंत्र की तरह ही किया गया है. उनका क्षेत्र सांपों की दुनिया यानी नाग लोक से नीचे है. भागवत के द्वादश स्कंध में लिखा है “तस्य मूलदेशे त्रिंशद्योजनसहस्रान्तर आस्ते या वै कला भगवतस्तामसी समाख्यातानन्त इति सात्वतीया द्रष्टृदृश्ययो: सङ्कर्षणमहमित्यभिमानलक्षणं यं सङ्कर्षणमित्याचक्षते ॥ ” शुकदेव ने परीक्षित से कहा: प्रिय राजन, पाताल नामक क्षेत्र के नीचे लगभग 240,000 मील दूर भगवान का एक और अवतार रहता है. वह भगवान विष्णु का विस्तार हैं जिन्हें भगवान अनंत या भगवान संकर्षण के नाम से जाना जाता है. वह तमोगुणी है और अंधकार का देवता है. प्रारम्भिक ग्रन्थों में अहीरबुधन्य सभी तंत्र का ज्ञान पाताल लोक के नीचे स्थित संकर्षण से प्राप्त करता है. अहीरबुधन्य ऋग्वेद में एक तुच्छ देवता है जो अजएकपाद रूद्र जैसा है. बल्कि ये दोनों जोड़े हैं और इनका वर्णन साथ साथ ही मिलता है. एक से शैवों ने दक्षिण भारत में अजएकपद रूद्र शिव की प्रतिमा का विकास किया और दूसरे से वैष्णवों ने बाद में कम्पटीशन में अहीरबुधन्य से अपना ब्यूह निकाल कर संकर्षण बना लिया.
नक्षत्र उत्तराभाद्रपद जिससे अहिर्बुधन्य संकर्षण की छवि और विचार विकसित हुआ, उस पर शनि का शासन है – जो कि सबसे बड़ा अशुभ ग्रह है और इसे काल का अवतार कहा जाता है. शनि भी तामसी या तमोगुणी है और पदार्थ और आत्मा दोनों को धारण करता है. आध्यात्मिक रूप से तमोगुण वह है जो धारण करता है और उसकी प्रकृति स्थिर होती है. शनि स्थिरता देता है. पिछला नक्षत्र पूर्वभाद्रपद अधिक स्थिर नहीं होता है क्योंकि यह वायु राशि में आता है लेकिन पानी के नीचे पृथ्वी भी होती है, इसलिए गहरे सर्प बिना हलचल के इसमें निवास कर सकता है. संकर्षण या शेष उसी में रहता है और उसके पीठ पर शैया लगा कर विष्णु सोता है. वेदों में जल को सबसे शुभ माना गया है क्योंकि नर और नारायण दोनों ही इससे संबंधित हैं. खैर हम विस्तार में नहीं जाना चाहते हैं, इनके व्यूहों का विकास क्रम के तार कहाँ कहाँ गये है ,हमें अच्छे से पता है. वैष्णव मूलभूत रूप से पौराणिक और तांत्रिक है, ये वैदिक नहीं हैं. इन व्यूहों से इनके कितने ही देवता पैदा हुए और उनसे इनके अनेक सम्प्रदाय भी उत्पन्न हुए. वैष्णव मूलभूत रूप से मिथ्या प्रोपगेंडा करने वाले, धर्म का व्यापार करने वाले, अज्ञानता का विस्तार करने वाले और दुराचारी रहे हैं.
मध्ययुग में लिखे गये वैष्णव पुराण अज्ञानता को विस्तार देते हैं. राजाओ के हरम की आइडिया को इन्होने धार्मिक रूप दे दिया और रासलीला जैसे पांचरात्र के प्रकरण लिख डाले. यह मूलभूत रूप से तांत्रिक स्वरूप रखता है. भागवत पुराण में बताया गया है कि घृणा, क्रोध इत्यदि के इतर सेक्स से भी भगवान की प्राप्ति होती है. वैष्णवों का सारा प्रयोजन और प्रपंच भैतिकवादी होता है और इनके आयोजन में भोग की प्रधानता रहती है. इन्होने ही 56 भोग बनाये और बाद में उसका व्यापार भी प्रारम्भ कर दिया. वैष्णव मन्दिर का प्रसाद, अन्न इत्यादि व्यापक स्तर पर रेस्टुरेंट की तरह बेचते हैं. अब तो थाली स्टेटस के अनुसार बेचने लगे हैं. इस्कॉन इत्यादि तो सिर्फ पाप के घर हैं. इनका रेस्टोरेंट बिजनेस बहुत बड़ा है. इस्कॉन वाले मन्दिर पिज्जा-बर्गर सब बेचते हैं. यदि इन धूर्त वैष्णवों को परलोक का तनिक भी भय होता तो यह फ़ूड प्रसाद का बिजनेस नहीं करते.
किसी भी हिन्दू ग्रन्थ में प्रसाद को बेचने का आदेश नहीं है क्योकि यह भगवान का पवित्र प्रसाद है. पवित्र प्रसाद को बेचना जघन्य पाप है. कोई भी धर्म इसकी अनुमति नहीं देगा. ये वैष्णव, हिन्दुओ से मन्दिर में करोड़ों का दान लेते हैं, उस दान से प्रसाद बनाकर हिन्दुओं को ही बेचते हैं. तिरुपति देवस्थान का दान वर्ष भर में 1000 करोड़ तक पहुंच जाता है, एक दिन में दान की राशि 7 करोड़ तक पहुंच जाती है लेकिन फिर भी ये लड्डू प्रसाद बेच कर करोड़ो रूपये कमाते हैं. विष्णु पुराण लिखने वाले पराशर ऋषि ने लिखा है कि हर चीज से लाभ प्राप्त करने की प्रवृत्ति पाप को पैदा करती है. मनुस्मृति शिक्षा तक को लाभ का विषय बनाने से रोकती है. मनु स्मृति कहती है कि ब्राह्मण यदि ज्ञान को बेचता है तो वह एक पापी है. पापी वैष्णवों के लिए प्याज खाना पाप है, बाकि सब जो उनके अनुसार नहीं है वह भी पाप है लेकिन प्रसाद बेच ही नहीं रहे मॉस स्केल पर कम्पनी की तरह ब्रांड टैग लगाकर निर्यात कर रहे हैं, वो पाप नहीं है? वो भी हिन्दुओं के दान के पैसे से कर रहे और उसे भी घटिया पशुओं की चर्बी का तेल में भून कर हिंदुओं को खिला रहे !
तिरुपति वैष्णव मन्दिर में प्रवेश करने के लिए 300 का टिकट लगता है. इससे बड़ा कौन सा पाप हो सकता है? भगवान के मन्दिर में प्रवेश के लिए पैसे लेने वाले धार्मिक कैसे हो सकते हैं? ऐसा विशुद्ध बिजनेस पूर्व काल में वेश्याएं करती थीं. यह मन्दिर श्रीवैष्णव सम्प्रदाय का मन्दिर माना जाता है. मन्दिर के रिचुअल प्रमुख रूप से पांचरात्र तन्त्र के रिचुअल हैं और होम इत्यादि भी अवैदिक रहे हैं हलांकि कालान्तर में प्रमाणिकता के लिए वैदिक सूक्तों का भी परायण किया जाने लगा. नालायिर दिव्य प्रबन्धम लोकल तमिल टेक्स्ट हैं जिनमे अनेक गायकों के भक्ति गीत लिखे हैं. तिरुपति मन्दिर में ये भक्ति गीत भी गए जाते हैं. इन गीतों का संकलन नाथमुनि ने किया था 10वीं शताब्दी में किया था.

