पहले हमने छोटे छोटे कुछ लेख में भागवत पुराण के तन्त्र होने और वेदविहित न होने को लेकर कुछ सवाल किये थे. भागवतियों के इस गल्प का भी खंडन हमने किया था कि गोपियाँ 7 साल की बालिकाएं थी. भागवत पुराण ही इस सन्दर्भ में साक्ष्य है. वैष्णवों का तांत्रिक परवर्जन विशेषकर 10-11वींवीं शताब्दी के बाद बदतर हुआ. वैष्णव धर्म पर तंत्र का शिकंजा पूरी तरह कस चूका था. वैष्णवों का पतन किसी भी प्रकार जड़ तांत्रिकों से कम नहीं हुआ है. उन्होंने कामाचार में कृष्ण की पत्नियों के तीन प्रकार कल्पित कर लिए – बैकुंठ में लक्ष्मी, द्वारका में राजमहिषी और वृंदावन में गोपियाँ. वैष्णवों ने यह तीन तरह के भेद हरम बनाने वाले राजाओं के लिए बनाये कि राजा की एक प्रमुख रानी होती है जो जन्मान्तरों से उसकी पत्नी है और पवित्र है, दूसरी राजा के भोग के लिए राजकन्यायें और दासियाँ हैं जिसे उसने जीता है, और तीसरा गुप्त तांत्रिक साधना के लिए हैं या आध्यात्मिक सम्बन्ध के लिए होती हैं. इस विषय को संक्षिप्त में ही सामने रखते हैं –
भागवत पुराण के तर्क क्या वैदिक हैं ?
राजा परीक्षित पूछता है –
कृष्णं विदु: परं कान्तं न तु ब्रह्मतया मुने।
गुणप्रवाहोपरमस्तासां गुणधियां कथम् ॥१२॥
गोपियाँ तो कृष्ण को अपना प्रेमी मानकर लौकिक काम से प्रेरित होकर गई थीं, ऐसे में काम जैसे दुस्तर रजोगुण के प्रवाह के अधीन रहते हुए, उन्होंने मुक्ति कैसे प्राप्त की?
इसका उत्तर देते हुए शुक देव कहता है–
उक्तं पुरस्तादेतत्ते चैद्य: सिद्धिं यथा गत:।
द्विषन्नपि हृषीकेशं किमुताधोक्षजप्रिया: ॥१३॥
कामं क्रोधं भयं स्नेहमैक्यं सौहृदमेव च।
नित्यं हरौ विदधतो यान्ति तन्मयतां हि ते ॥१५॥
काम, क्रोध, भय, ईर्ष्या, मद इत्यादि भी मुक्ति का साधन हैं, इसके द्वारा भी हरि में तन्मय होने पर मुक्ति होती है.
यह वेद-वेदांत और योग का तर्क नहीं है. यह उपनिषदों और ब्रह्मसूत्र का तर्क नहीं है और ना ही मनु की स्मृति में ही यह तर्क उपलब्ध है. यह अवैदिक तन्त्र का तर्क है. भागवत में कृष्ण का गोपियों को “वीर” सम्बोधन और गोपियों द्वारा भी कृष्ण को “वीर” सम्बोधन तांत्रिक ही है. तंत्र साधक एक दूसरे को वीर ही कहते हैं. भक्त और भगवान के बीच यह सम्बोधन नहीं होता. भागवत में एक जगह रास में कृष्ण का वर्णन मदशाली हाथी की तरह किया गया है जो सरोवर में हथिनियों के झुण्ड के साथ क्रीडा करने ऐसे घुसता है जैसे बांध तोड़ कर घुस रहा है. बाँध तोड़ना सिम्बोलिक है. स्त्री की योनि और गुदा के बीच बाँध (dam) होता है. पश्चिम में इसी को गाली बना दिया गया.
भागवत तन्त्र के वैष्णव धर्म के अनुसार परदारा से साथ ही खुलकर प्रेम या उन्मुक्त सेक्स सम्भव है, ऐसा कहा गया है. पुराण कथावाचक वल्लभाचार्य भी यह बात भागवत व्याख्या में लिखता है कि वैदिक धर्म का मर्यादा मार्ग में तो शुद्ध ज्ञान से मुक्ति कही गई है (जैसा कि भगवद्गीता में वर्णित है) लेकिन पुष्टि मार्ग में मुक्ति उन सभी चीजो से हो सकती है जिससे भाव पुष्ट हो. बल्लभाचार्य के अनुसार भगवान परिवार रूप प्रपंच ( पति, पत्नी ) के विरोधी हैं. उनके अनुसार परदारा या पर पुरुष के प्रति जो प्रेम है वह सगुण भक्ति रूप है. परदारा को मनुष्य अपनी स्त्री से ज्यादा प्रेम करता ही है. वैष्णव संहिता जो मूलभूत रूप से तंत्रों से चुराए गये विचारों पर आधारित है, ये मानते हैं कि अपनी स्त्री से सम्भोग या प्रेम भाव पुष्ट नहीं होता, यह ‘परदारा’ से ही सम्भव है. इसलिए “परदारा” अर्थात दुसरे की स्त्री को भागवत में उन्मुक्त प्रेम के लिए आधार बनाया गया है. गोपियां दूसरों की पत्नियाँ थीं, जो कृष्ण के प्रति कामभाव से प्रेरित हो सम्भोग करने गई थीं या यह कह सकते हैं वे वीर तन्त्र साधिका थीं जो निर्भय हो कर रात में घंने जंगल में गुप्त तन्त्र करने गई थीं. यहाँ भक्ति का प्रसंग ही नहीं है क्योंकि यहाँ गोपियाँ कृष्ण के प्रति काम भाव से प्रेरित होकर गई थी. प्रपंच रूप सम्भोग जैसे साधन से मुक्ति प्राप्त करने गई थीं. भागवत पुराण में रासलीला से पूर्व कृष्ण गोपियों से कहते हैं –
पर पुरुष से सम्बन्ध करना भयावह है, इससे स्वर्ग कि प्राप्ति नहीं होती. यह लोक में सर्वत्र ही जुगुप्सित, अनैतिक कर्म है. आप सभी वापस घर जाकर पतियों और पुत्रों की सेवा करें.
अस्वर्ग्यमयशस्यं च फल्गु कृच्छ्रं भयावहम् ।
जुगुप्सितं च सर्वत्र ह्यौपपत्यं कुलस्त्रिय: ॥
यहाँ औपपत्यं शब्द प्रयोग किया गया है अर्थात वे दूसरे की पत्नियाँ थी जो रास करने गई थी. कृष्ण ने एक तांत्रिक की तरह न्यौता दिया कि यदपि की लोक दृष्टि से परपुरुष से सम्भोग अनौतिक कर्म है लेकिन जो दृढ़ प्रतिज्ञ हों, जिनको परिवार- समाज की परवाह न हो, उनका एक्सपेरिमेंट में स्वागत है. यही तन्त्र में कहा गया है, यह तन्त्र आवश्यकता है. वैष्णवों का परिकरी या सखियों का कंसेप्ट हरम की सेविकाओं की तरह का ही है. इनमे कुछ सेवा-पानी करने वाली हैं और कुछ संदेहवाहक अथवा दूसरी गोपियों को गुप्त तरीके से बहला फुसला कर सेक्स स्थल पर ले आने वाली होती है. गौरतलब है कि तन्त्र के उपदेशक शिव-पार्वती माने जाते हैं. भागवती शुकदेव एक तोता था जिसने शिव-पार्वती की तथाकथित अमरकथा अथवा तंत्र का गुप्त उपदेश अमरनाथ की गुफा में सुन ली थी. प्रचलित कथा के अनुसार शिव पार्वती को अमर कथा अथवा कुछ गुप्त रहस्य की बातें बता रहे थे. पार्वती सुन रही थीं और हुंकार भर रही थी, लेकिन तभी उनको नींद आ गई. गुफा में एक तोते के अंडे से निकला बाल तोता सब कथा सुन रहा था. कथा सुन कर तोते में शक्तियां आ गईं थीं. जब तोते ने देखा कि पार्वती सो रही हैं. कहीं शिव कथा सुनाना न बंद कर दें इसलिए वह पार्वती की जगह हुंकारी भरने लगा. शिव कथा सुनाते रहे. लेकिन शीघ्र ही शिव को पता चल गया कि पार्वती के स्थान पर कोई औऱ हुंकारी भर रहा है. वह क्रोधित होकर शुक को मारने के लिए उठे. शुक वहां से निकलकर भागा. वह पुराणों के कथाकार वेद व्यास के आश्रम में पहुंचा (ये भाष्यकार वेदव्यास नहीं थे). भागवती कथाकार व्यास की पत्नी ने उसी समय जम्हाई ली और शुक सूक्ष्म रूप धारण कर उसके मुख में प्रवेश कर गया. शिव ने जब उसे कथा व्यास की शरण में देखा तो मारने का विचार त्याग दिया. शुक व्यास की पत्नी के गर्भस्थ शिशु हो गया. गर्भ में ही उसे वेद, उपनिषद, दर्शन और पुराण आदि का सम्यक ज्ञान हो प्राप्त हो गया और अमरनाथ की गुफा में तन्त्र सुन ही चूका था. भागवतियों में तन्त्र का प्रवेश कुछ इसी तरह हुआ. गौरतलब है कि कबूतर सनातन वैदिक धर्म में अपवित्र माना गया है. आश्वलायन इत्यादि गृह्य सूत्रों में घर में कबूतर घुसने पर जप होम और कपोत सूक्त (ऋग्वेद-10.165) का पाठ बताया गया है.
देवा॑: क॒पोत॑ इषि॒तो यदि॒च्छन्दू॒तो निॠ॑त्या इ॒दमा॑ज॒गाम॑ ।
तस्मा॑ अर्चाम कृ॒णवा॑म॒ निष्कृ॑तिं॒ शं नो॑ अस्तु द्वि॒पदे॒ शं चतु॑ष्पदे ॥
यहाँ तो भागवती वैष्णव की औरत के मुख में ही कपोत प्रविष्ट हो गया है. ऐसे में वैष्णव वैदिक कैसे हो सकते हैं. ये कृष्ण-राधा पंथी वैष्णव वैदिक नहीं हैं, ये तंत्र मार्गी हैं.
भगवतियों का उद्देश्य भी सम्भोग से समाधि ही है. भागवत का उद्देश्य तांत्रिको का ’ दिव्यभाव की उपलब्धि ही है लेकिन ग्रन्थ में इसे छद्म तरीके से भक्ति की खोल में रखा गया है.

