श्री कृष्ण का जन्म अलौकिक था, जैसा की भगवद्गीता में स्वयं कहा है “जन्म कर्म च में दिव्यं”. देवकी और वासुदेव के गर्भ से भगवान का यह तीसरा जन्म था. जब भगवान का जन्म हुआ तो देवकी और वासुदेव ने उनकी स्तुति की थी. उस समय श्री कृष्ण ने वासुदेव और देवकी से अपने जन्म रहस्य का उद्घाटन किया और कहा –
श्रीभगवानुवाचत्वमेव पूर्वसर्गेऽभू: पृश्नि: स्वायम्भुवे सति । तदायं सुतपा नाम प्रजापतिरकल्मष: ॥ ३२
युवां वै ब्रह्मणादिष्टौ प्रजासर्गे यदा तत:। सन्नियम्येन्द्रियग्रामं तेपाथे परमं तप: ॥ ३३ ॥
वर्षवातातपहिमघर्मकालगुणाननु । सहमानौ श्वासरोधविनिर्धूतमनोमलौ ॥ ३४ ॥
शीर्णपर्णानिलाहारावुपशान्तेन चेतसा ।मत्त: कामानभीप्सन्तौ मदाराधनमीहतु: ॥ ३५ ॥
एवं वां तप्यतोस्तीव्रं तप: परमदुष्करम् । दिव्यवर्षसहस्राणि द्वादशेयुर्मदात्मनो: ॥ ३६ ॥
तदा वां परितुष्टोऽहममुना वपुषानघे । तपसा श्रद्धया नित्यं भक्त्या च हृदि भावित: ॥ ३७ ॥
प्रादुरासं वरदराड् युवयो: कामदित्सया । व्रियतां वर इत्युक्ते मादृशो वां वृत: सुत: ॥ ३८ ॥
अजुष्टग्राम्यविषयावनपत्यौ च दम्पती । न वव्राथेऽपवगन मे मोहितौ देवमायया ॥ ३९ ॥
गते मयि युवां लब्ध्वा वरं मत्सदृशं सुतम् । ग्राम्यान् भोगानभुञ्जाथां युवां प्राप्तमनोरथौ ॥ ४० ॥
देवि ! स्वयंभुव मन्वन्तर में तुम्हारा नाम पृश्नि था और वासुदेव सुतपा नाम के प्रजापति थे. तुमने और वासुदेव ने मेरी दिव्य बारह हजार वर्ष तक आराधना की थी. तुम्हारी आराधना से मैं प्रसन्न हुआ था और तुमसे इच्छित वर मांगने के लिए कहा था. तब तुम दोनों ने मुझे पुत्र के रूप में माँगा था. उस समय तक तुम दोनों में कोई सम्बन्ध नहीं हुआ था. तुम्हे कोई सन्तान भी नहीं थी. इसलिए योगमाया से मोहित होकर तुम दोनों ने मुझसे मोक्ष नहीं माँगा. “मैं तुम्हे पुत्र के रूप में प्राप्त होऊंगा” यह वर देकर मैं चला गया. उस समय मैं तुम्हारा पुत्र हुआ था और “पृश्निगर्भ” नाम से विख्यात हुआ था. दूसरे जन्म में फिर तुम दोनों अदिति और कश्यप हुए थे, उस समय भी मैं तुम्हारा पुत्र हुआ था. मेरा नाम उपेन्द्र था. शरीर छोटा होने के कारण लोग मुझे वामन कहते थे. तुम्हारी कोख से यह मेरा तीसरा जन्म है. मेरी वाणी सर्वदा सत्य होती है.
-श्रीमदभागवतं दशम स्कन्ध

