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सभी सत्य के मार्ग पर चलने वाले या ब्रह्म जिज्ञासु लोगों को जीवन में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उन मनुष्यों को ज्यादा परेशानियों का सामना करना पड़ता है जो स्थापित दार्शनिक मूल्यों या परम्परा से अलग कुछ नया करते हैं। भारत के इतिहास को देखें तो यहाँ अवतरित भगवान और बड़े गुरुओं के जीवन में भी बाधाएं आई हैं। इस बावत एक बहुत बड़ा उदाहरण स्वयं श्री कृष्ण हैं। भागवत पुराण में गोवर्धन धारण का प्रसंग में हम देखते हैं कि उनसे जुड़े सभी लोगों को विकट परेशानियों का सामना करना पड़ा था। श्री कृष्ण के जन्म के समय भी माता पिता को बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। कृष्ण का यह अंतिम जन्म था, वे मुक्त होकर योगेश्वर की पदवी प्राप्त करने वाले थे जिस कारण देवताओं ने अनेक प्रकार की बाधाओं को उत्पन्न किया था। आदि शंकराचार्य ने अपने बृहदारण्यक उपनिषद भाष्य में लिखा है कि देवता इसलिए बाधा पहुंचाते हैं क्योंकि उनका जीवन मनुष्य के धर्म-कर्म पर आश्रित है। जब कोई मनुष्य इसके इतर ज्ञान की खोज प्रारम्भ करता है तो उन्हें इसके खोने का भय होता है जिससे वे बाधा डाल कर उसे निरुद्ध करने की चेष्टा करते हैं।

भागवत पुराण की कथा के अनुसार परम्परा से यदुवंशी अपने ग्राम देवता, कुलदेवता इत्यादि का तो पूजन करते ही थे लेकिन यादव वन में रहने वाली और गोचारण करने वाली जाति थी इसलिए वे गोवर्धन पर्वत पर इंद्र की भी पूजा करते थे। गोवर्धन पर्वत पर की जाने वाली इस पूजा में उसका भोग इंद्र लेता था। यादव गोवर्धन पर्वत पर यह पूजा-उत्सव बड़े धूमधाम से मनाते थे और बड़ी संख्या में गाँवों के स्त्री-पुरुष और बच्चे इस उत्सव में शामिल होते थे. जब कृष्ण थोड़े बड़े हुए तो एक साल जब इस उत्सव के लिए यादव बैलगाड़ियों में भोज्य सामग्री लेकर सपरिवार उत्सव के लिए गोवर्धन पर्वत पर जाने की तैयारी करने लगे। उस समय श्री कृष्ण ने अपने पिता वासुदेव से इस प्रकार पूछा –
कथ्यतां मे पित: कोऽयं सम्भ्रमो व उपागत:।
किं फलं कस्य वोद्देश: केन वा साध्यते मख:॥3॥

पिताजी! आप लोग के सामने यह कौन सा बड़ा भारी काम, कौन सा उत्सव आ पहुंचा है? यह किस उद्देश्य से किया जाता है? किस प्रकार के साधनों से यह पूजा की जाती है? इसका फल क्या है ? मुझे विस्तार बताइये।

ज्ञात्वाज्ञात्वा च कर्माणि जनोऽयमनुतिष्ठति।
विदुष: कर्मसिद्धि: स्याद् यथा नाविदुषो भवेत् ॥६॥

यह संसारी मनुष्य समझे-बेसमझे अनेक प्रकार के कर्मों का अनुष्ठान करता है। उनमें से समझ-बूझकर करने वाले पुरुषों के कर्म जैसे सफल होते हैं, वैसे बेसमझ के नहीं होते। नन्द बाबा ने कृष्ण को बताया कि वर्षा के स्वामी इंद्र की पूजा गोवर्धन पर्वत पर की जाती है क्योंकि वर्षा से ही खेती होती है, वर्षा से ही अन्न उत्पन्न होता है। अन्न आदि से ही हमारा जीवन निर्वाह होता है। गोवर्धन पर इंद्र की यह पूजा हमारी कुलपरम्परा से चला आया है। जो मनुष्य परम्परागत धर्म को छोड़ देता है, उसका कभी कल्याण नहीं होता। श्री कृष्ण ने इंद्र की पूजा को रोक दिया और अपने पिता वासुदेव को उपदेश देते हुए कहा कि ये इंद्र इत्यादि देवता कुछ नहीं होते। हमें उनकी पूजा करनी चाहिए जिनसे हमारा कल्याण होता है। इन मेघों और वर्षा में इंद्र कोई निमित्त नहीं है। यह सृष्टि त्रिगुणात्मक है। यह सब कुछ त्रिगुणात्मक प्रकृति का कार्य है। रजोगुण की प्रेरणा से मेघ सब कहीं जल बरसाते हैं। इसमें इंद्र का कोई लेना देना नहीं है। कृष्ण ने नन्दबाबा को कहा कि इंद्र से बेहतर है इस गोवर्धन की ही पूजा करें क्योंकि यह प्राकृतिक सम्पदाओं से भरपूर है, इससे हमे सब कुछ प्राप्त होता है। हमें ब्राह्मणों की पूजा करनी चाहिए क्योंकि वे हमे विद्या और ज्ञान प्रदान करते हैं। हमें गायों की पूजा करनी चाहिए क्योंकि वह हमारी अर्थव्यवस्था का साधन है। श्री कृष्ण ने कहा कि स्त्री-पुरुष और बच्चे सुंदर वस्त्र और आभूषण पहन कर, चन्दन इत्यादि लगा कर गिरिराज गोवर्धन, गौ, ब्राह्मण और अग्नि प्रदक्षिणा करें। यहीं पर वेदपाठी ब्राह्मणों से हवन कराया जाय। सभी यादवों ने कृष्ण के कहे अनुसार ही यज्ञादि किये, ब्राह्मणों को दान दिया, गायों की पूजा की और गोवर्धन की परिक्रमा सम्पन्न की। उस समय श्री कृष्ण ने गोवर्धन रूप धारण कर कहा “मैं ही गिरिराज हूँ” और जो भी भोग वहां गिरिराज को प्रदान किये गये थे उसका भोग करने लगे।

कृष्णस्त्वन्यतमं रूपं गोपविश्रम्भणं गत: ।
शैलोऽस्मीति ब्रुवन् भूरि बलिमादद् बृहद्वपु:॥ ३५॥  

श्रीकृष्ण अपने उस गिरिराज स्वरूप को ब्रजवासियों के साथ ही प्रणाम करने लगे “देखो, कैसा आश्चर्य है ! गिरिराज ने हम पर कृपा की है। ये चाहे जैसा भी रूप धारण कर सकते हैं। जो वनवासी इनका निरादर करते हैं, उन्हें ये नष्ट कर डालते हैं। आओ, अपना और गौओं का कल्याण करने के लिए इन गिरिराज को हम प्रणाम करें। इस प्रकार इंद्र पूजा रुक जाने से मानो कयामत ही आ गई। इंद्र ने ब्रज में विप्लव मचा दिया। सारा व्रज जलमय होकर डूबने लगा। उस समय कृष्ण ने मन ही मन में चिन्तन किया “ये देवता अज्ञान और मूर्खतावश खुद को लोकपाल मानते है। मैं इन्हें दंडित करूंगा और इनका अभिमान तोडूंगा। ”

न हि सद्भ‍ावयुक्तानां सुराणामीशविस्मय: ।
मत्तोऽसतां मानभङ्ग: प्रशमायोपकल्पते ॥ १७ ॥

देवता सत्वप्रधान होते हैं। इनसे प्राणियों को पीड़ा और कष्ट पहुँचाने की अपेक्षा नही की जाती। इनमे अपने ऐश्वर्य और पद का अभिमान नहीं होना चाहिए। मैं इन दुष्टों का मान भंग करूंगा ताकि इन्हें शांति मिल सके। इस प्रकार इंद्र ने ब्रज को संकट में डाला लेकिन नायक कृष्ण ने उन्हें इन संकटों से बचाया। उस समय कृष्ण ने गोवर्धन धारण किया था। इस कथा से यह स्पष्ट होता है कि ज्ञानी मनुष्यों के सामने देवता मुश्किलें खड़ी करते हैं। ज्ञान द्वारा देवलोक को जीता जा सकता है। श्री कृष्ण ने अपने ज्ञान और योग द्वारा इंद्र को जीत लिया था और इंद्र ने सुरभि गाय के साथ उनका अभिषेक कर उन्हें अपना स्वामी स्वीकार किया।