Spread the love

पुराणों में ग्रहों के अनेक स्तोत्र प्राप्त होते हैं. पुराणों के स्तोत्र ग्रहों के चरित्र के बारे में भी काफी कुछ बातें स्पष्ट करते हैं. इस स्तोत्र में केतु को गणेश और विध्नेश कहा गया है अर्थात यह जिस भाव में होता है उस भाव से सम्बन्धित चीजों पर बाधा खड़ी करता है. स्तोत्र में दूसरा चरित्र यह है कि यह विषरोगनाशक है, यह विषरोग को उत्पन्न करने वाला तथा उसका नाश भी करता है. केतु का अपना कोई चरित्र नहीं है लेकिन कुछ मोटे मोटे गुण आवश्य हैं जो इसे राहु से अलग करते हैं. प्राचीन ज्योतिष ग्रन्थों में राहु के फलादेश मिलते हैं लेकिन केतु के नहीं मिलते क्योंकि उन आचार्यों का मानना था कि दोनों के चरित्र में कोई अंतर विशेष नही है. उनका मानना था कि दोनों एक दैत्य के देह के हिस्से हैं जिन्होंने अमरता प्राप्त कर छाया ग्रह का पद प्राप्त कर लिया और उन्हें सूर्य और चन्द्रमा को ग्रसने तथा कर्म फल प्रदान करने का कार्य मिला , इसलिए जो फल राहु करता है उसमे केतु का भी योग अवश्य रहता है. राहु शनिवत है, केतु भौमवत है यह एक मान्यता है जो ज्योतिष ग्रन्थों से नहीं आई, यह एक पौराणिक मान्यता है. केतु के भौमवत चरित्र के कारण ही इसे रौद्र, रूद्रप्रिय और क्रूर-कर्मा कहा गया है. राहु क्रूर कर्मा नहीं है, केतु क्रूर कर्मा है अर्थात मंगल की तरह ही बड़े रक्तपात का कारक है. पुराणों में केतु को सन्यास कारक माना गया है.
इस स्तोत्र में केतु के 25 नाम हैं, इउं नामों के उच्चारण से केतु प्रसन्न होता है और केतु जनित बधाओं का समन होता है.

केतुः कालः कलयिता धूम्रकेतुर्विवर्णकः ।
लोककेतुर्महाकेतुः सर्वकेतुर्भयप्रदः ॥ १॥

रौद्रो रुद्रप्रियो रुद्रः क्रूरकर्मा सुगन्धधृक् ।
पलाशधूमसंकाशश्चित्रयज्ञोपवीतधृक् ॥ २॥

तारागणविमर्दी च जैमिनेयो ग्रहाधिपः ।
गणेशदेवो विघ्नेशो विषरोगार्तिनाशनः ॥ ३॥

प्रव्रज्यादो ज्ञानदश्च तीर्थयात्राप्रवर्तकः ।
पञ्चविंशतिनामानि केतोर्यः सततं पठेत् ॥ ४॥

तस्य नश्यति बाधा च सर्वकेतुप्रसादतः ।
धनधान्यपशूनां च भवेद् वृद्धिर्न संशयः ॥ ५॥ ॥

इति श्रीस्कन्दपुराणे केतोः पञ्चविंशतिनामस्तोत्रं संपूर्णम् ॥