एषाऽऽत्मशक्तिः । एषा विश्वमोहिनी ।
पाशाङ्कुशधनुर्बाणधरा । एषा श्रीमहाविद्या ।
य एवं वेद स शोकं तरति ॥ १५॥
नमस्तेSस्तु भगवति मातरस्मान्पाहि सर्वतः ॥ १६॥
देवताओं ने देवी की ज्ञानमय स्तुति में पीछे उन्हें परमाविद्या कह कर उनकी महिमा का गायन किया है. अब इन दो मन्त्रों में उन्हें ब्रह्मविद्या कह कर उनका आत्मशक्ति के रूप में वर्णन करते हैं. वे आत्मतत्व हैं जिसको जानकर मनुष्य समस्त शोक और दुखों से परे चला जाता है. कोई आत्मतत्व को जानने वाला आत्मवित् ही शोक को तर सकता है, जैसा कि छान्दोग्य श्रुति कहती है “तरति शोकमात्मवित्”. जब नारद जी ऋषि सनत्कुमार के पास ब्रह्म विद्या की प्राप्ति के लिए गये और सनत्कुमार से कहा कि उन्हें वेद, उपनिषद, स्मृति, इतिहास पुराण, व्याकरण इत्यादि का पूर्ण ज्ञान है, तो यह सुनकर सनत्कुमार कहते हैं यह कोई ज्ञान नहीं, यह सिर्फ नाम ही है और इससे पेट का भरण मात्र हो सकता है. इसी प्रसंग में नारद पूछते हैं कि “भगवन ! वो क्या है जिसको जान कर व्यक्ति सभी शोक और मोह से परे चला जाता है ?” तब ऋषि उन्हें ब्रह्मविद्या का उपदेश करते हैं. देवी ही वो ब्रह्मविद्या हैं जिसकी स्तुति यहाँ देवता करते हैं. ब्रह्मविद्या को ही महाविद्या कहा गया है क्योंकि एक मात्र यही विद्या व्यक्ति को अमरत्व प्रदान कर उसे सम्प्रभु बना देने में सक्षम है.
देवता जगदम्बा को उपरोक्त मन्त्र “कामो योनि: कमला ” में तीन प्रकार से सम्बोधन करते हैं और कहते हैं कि वे श्री महाविद्या है अर्थात श्रीविद्या है, अखिल ब्रह्मांड को मोह में डालने वाली विश्वमोहिनी विद्या है और यही आत्मविद्या है. यह विश्वमोहिनी जगद्धात्री ही सम्पूर्ण जगत को मोह में डाल कर जन्म-मरण के चक्र में घुमाती रहती हैं और फिर वही पूजित होने पर उन्हें मुक्त भी कर देती हैं-
सैषा प्रसन्ना वरदा नृणां भवति मुक्तये।
सा विद्या परमा मुक्तेर्हेतुभूता सनातनी ।।
दुर्गा शप्तशती में यह भी कहा गया है कि ये विश्वमोहिनी विद्वानों को भी बल पूर्वक मोह में डाल देती है “ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा । बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति“. शप्तशती के पहले अध्याय की कथा में आया है कि उनके द्वारा ही मोह में डाले जाने के बाद महाविष्णु एकार्णव में शयन करते हैं. उस समय घोर अंधकार में विष्णु के कानों से दो असुर मधु-कैटभ प्रकट हो जाते हैं. भयभीत जगतपिता ब्रह्मा जी ने इन असुरों का वध करने के लिए महामाया की स्तुति कर उन्हें जगाया था. ब्रह्मा जी ने स्तुति करते हुए देवी के विश्वमोहिनी स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा –
सौम्या सौम्यतराशेषसौम्येभ्यस्त्वतिसुन्दरी ।
परापराणां परमा त्वमेव परमेश्वरी ॥
हे देवी! आपका स्वरूप सौम्य से भी सौम्यतर है, आप ही सबसे सुन्दरी हो. पर-अपर सबसे परे रहने वाली परमेश्वरी आप ही हो. ब्रह्मा जी ने इस स्तुति में उन्हें “महाविद्या” कह सम्बोधन भी किया है और ब्रह्मा, विष्णु, शिव को शरीर ग्रहण कराने वाली “विष्णुः शरीरग्रहणमहमीशान एव च ” कह कर स्पष्ट रूप से उन्हें ब्रह्ममयी भी कहा है. देवताओं ने भी “एषाऽऽत्मशक्तिः ” कहकर उन्हें ब्रह्ममयी ही कहा है. वेदमाता सूक्त में भी इन्हें ब्रह्मलोक की प्राप्ति कराने वाला कहा गया है –
स्तुता मया वरदा वेदमाता प्र चोदयन्तां पावमानी द्विजानाम्।
आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसम्। मह्यं दत्त्वा व्रजत ब्रह्मलोकम् ॥
इन्हीं देवी को “उत्तमे शिखरे देवी” कहा गया है, यही सबसे ऊपर अवस्थित हैं. नारायण सूक्त में भी यही बात कही गई है “तस्या: शिखाया मध्ये परमात्मा व्यवस्थितः”. देवी महाविद्या हैं, ब्रह्मविद्या हैं इसलिए उनको जानने वाला शोक को तर जाता है. “नमस्तेSस्तु भगवति मातरस्मान्पाहि सर्वतः ॥” देवताओं ने देवी दुर्गा को “भगवती” और “माता” कह सम्बोधन किया है, उन्होंने पहले भगवती रूप में सर्वशक्ति स्वरूप देवी का आह्वान किया और फिर उनसे तारने और रक्षा करने की प्रार्थना करते हैं. देवी को “भवानी” इसीलिए कहते हैं क्योंकि वह भवसागर से तारती हैं, माता भी इसीलिए कहते हैं क्योंकि वह तारती हैं. भव का अर्थ है – शिव, जन्म-संसार, मन्मथ. भगवती ने कामदेव को जीवन प्रदान किया था, वे महादेव को भी जीवन प्रदान करती हैं, वायु पुराण में कहा गया है कि वे उन्हें जल प्रदान करती हैं. जल ही जीवन है और वे जीवों को संसार सागर से तारती हैं. देवी पुराण में कहा गया है-
“रुद्रो भवो भव: कामो भव: संसारसागर: ।
तत्प्राणनादियं देवी भवानी परिकीर्तित: ।।
पीछे जिस पंचदशी मन्त्र का वर्णन किया गया है उसमे ह्रीं बीज ही तार है इसलिए इन्हें ही तारने वाली तारा भी कहते हैं. देवताओं ने उन्हें ही सर्वशक्तिमान, भव सागर को तारने वाली, आत्मशक्ति कह कर उनके विग्रह का वर्णन किया -“पाशाङ्कुशधनुर्बाणधरा” अर्थात उनकें हाथों में पाश, अंकुश और धनुष-बाण सुशोभित है. दुर्गाम्बा जगतमोहिनी हैं इसलिए उनके धनुष इक्षु के हैं और बाण पंच-पुष्पों के हैं. भगवती दुर्गा ही इस महाविद्या रूप में भगवती ललिता त्रिपुरसुन्दरी हैं.

देवताओं द्वारा देवी के विग्रह का उपरोक्त वर्णन से ही ललिता त्रिपुर सुन्दरी का निम्नलिखित ध्यान मन्त्र बना –
सिन्दूरारुणविग्रहां त्रिनयनां माणिक्यमौलिस्फुरत्
तारानायकशेखरां स्मितमुखीमापीनवक्षोरुहाम् ।
पाणिभ्यामलिपूर्णरत्नचषकं रक्तोत्पलं विभ्रतीं
सौम्यां रत्नघटस्थरक्तचरणां ध्यायेत्परामम्बिकाम् ॥
अरुणां करुणातरङ्गिताक्षीं
धृतपाशाङ्कुशपुष्पबाणचापाम् ।
अणिमादिभिरावृतां मयुखैः
अहमित्येव विभावये भवानीम् ॥
ध्यायेत्पद्मासनस्थां विकसितवदनां
पद्मपत्रायताक्षीं हेमाभां पीतवस्त्रां
करकलितलसद्धेमपद्मां वराङ्गीम् ।
सर्वालङ्कारयुक्तां सततमभयदां
भक्तनम्रां भवानीं श्रीविद्यां शान्तमूर्तिं
सकलसुरनुतां सर्वसम्पत्प्रदात्रीम् ॥
महादेवी सर्व भूतों में आत्मशक्ति के रूप में स्थित हैं इसलिए वे चितिशक्ति के रूप में ही मनुष्यों में श्रद्धा इत्यादि का विकास करती हैं. देवी ही मनुष्य की चेतना का विकास कर उन्हें दैवी सम्पद वाला बनाती हैं जिससे वह उनके स्वरूप को देख पायें और मुक्तिलाभ कर सकें. केन उपनिषद में आख्यान है कि जब देवताओं को असुरों पर विजय के बाद बड़ा अहंकार हो गया तो उनके अहंकार को खत्म करके उनका कल्याण करने के लिए विशालकाय यक्ष रूप में शिव प्रकट हुए. देवता उन्हें पहचान नहीं पाए. इंद्र ने अग्नि देव को यक्ष की परीक्षा करने के लिए भेजा. अग्नि देव से यक्ष ने पूछा – तुम क्या कर सकते हो? अग्नि ने कहा -मैं अखिल ब्रह्मांड को जला सकता हूँ. यक्ष ने तब उनके समक्ष एक सूखा पत्ता रख दिया और कहा जलाओ ! लेकिन अग्नि देव यक्ष द्वारा रखे गये एक सूखे पत्ते को भी नहीं जला पाए. उस यक्ष ने एक एक करके सभी देवताओं की शक्ति का अहंकार खंडित कर दिया और अंतर्ध्यान हो गये. यह देख कर देवता उनके बारे में सोचने लगे कि वे कौन थे जो एक झटके में ही हमारे गर्व को उड़ा कर चले गये? वो कौन थे ! तभी ब्रह्मविद्या के रूप में ब्रह्मचारिणी हैमवती उमा प्रकट हुईं “स तस्मिन्नेवाकाशे स्त्रियमाजगाम बहुशोभमानामुमां हैमवतीं तां होवाच किमेतद्यक्शमिति ॥” और उन्हें उपदेश करते हुए कहा-
“सा ब्रह्मेति होवाच ब्रह्मणो वा एतद्विजये महीयध्वमिति ततो हैव विदाञ्चकार ब्रह्मेति ॥”
जिसे तुम यक्ष समझ रहे थे वो साक्षात् ब्रह्म ही थे. जिनकी महिमा से तुम देवगण असुरों पर विजय प्राप्त कर महिमान्वित हुए हो, वस्तुत: यह उन परब्रह्म परमात्मा की ही विजय है, तुम लोग तो इसमें निमित्त मात्र थे.”
इस आत्मशक्ति स्वरूप भगवती को देवताओं ने प्रणाम करते हुए कहा कि “हे भगवती ! तुम्हें नमस्कार करते हैं. हे माता ! हमारी हर प्रकार से रक्षा करो.” देवताओं और मनुष्यों के लिए संसार सागर में पतन ही सबसे बड़ा भय है. देवी को शक्ति कहा गया है क्योंकि वे “सकती” रूप हैं अर्थात कुछ भी कर सकने की योग्यता हैं. जब अम्बिका को महाशक्ति कहते हैं तब वे ज्ञान और भक्ति रूपी महा-आसक्ति हैं, महाराग हैं अर्थात परमप्रेम स्वरूपा हैं. देवी सर्वेश्वरी हैं, सर्वज्ञ हैं और सबकी अन्तर्यामी हैं, यही सबकी योनि हैं तथा सबकी उत्पत्ति स्थिति और प्रलय का कारण हैं “एष सर्वेश्वरि: एष सर्वज्ञ एषोऽन्तर्याम्येष योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानाम् ॥”
आगे की ऋचाओं में देवगण महादेवी का तैतीस कोटि देवताओं के रूप में वर्णन करेंगे.

