जीवन क्या है ? इसी उधेड़-बुन में आँखें झपक गयीं. स्वप्न में एक सन्त दिखे. उस स्वप्निल सन्त ने सिर छिपाने के लिए ऐसी अद्भुत कुटिया में रहने का निश्चय किया, जो जोहड़ की मिट्टी से बनी थी. छत उसकी इतनी कमजोर थी कि न जाने कब वह गिर जाए । जगह-जगह दीवालों में छिद्र हो गए थे. बरखा ऋतु में उसका टप-टप कर चूरा होता था. पानी एवं दुर्गन्धमय मिट्टी के संयोग से उसमें छोटे-छोटे कीड़ों ने जन्म ले लिया था. गली-सड़ी तरु शाखाओं से उसे बाँधा गया था, अतएव मजबूती न थी. उस कुटिया के बीचों-बीच एक बड़ा नाला बहता था, जिसमें से स्वच्छ जल आता था, किन्तु कुटिया के दूषित माहौल से वह भी दुर्गन्धमय हो जाता था. कुटिया के बाहर मच्छर, बर्र और ततैये थे. सन्त जब भी बाहर निकलते, सबके सब चारों ओर से चिपटकर उन्हें काट लेते और सन्त का शरीर लहूलुहान हो जाता. इस प्रकार उन सन्त का जीवन बहुत कष्ट में गुजर रहा था.
इस असह्य कष्ट से छुटकारा पाने लिए वे शान्ति की खोज में चल पड़े. उन सन्त की मुलाकात एक देवर्षि से हो गयी. देवर्षि के समक्ष उन्होंने अपनी व्यथा-कथा कह डाली. देवर्षि ने मुसकराते हुए उनको आश्वस्त किया. सन्त को लेकर वह स्वयं चल दिए. काफी दूर निकल आए. अब की बार वे दोनों गहन अरण्य में जा पहुँचे. पहुँचते- पहुँचते अन्धकार हो गया, मार्ग भी आगे दिखाई न दिया, तभी ऐसे में देवर्षि भी अन्तर्ध्यान हो गए सन्त विचारने लगे कि अब क्या करूं ? खाने को कुछ भी नहीं, कैसे होगा, अब आगे शून्य ही शून्य दिखाई देता है. आज तो बुरे फँसे. रात गहरा रही थी, अँधेरा घना हो चुका था कि लुटेरे आ गए. उन्होंने सन्त को खूब मारा-पीटा. वे विकल हो रोने लगे. जैसे-तैसे भाग कर अपने प्राण बचाए. शरीर थककर चूर हो गया था. इतने में उन्होंने एक तपस्वी साधक को देखा. वह कुछ आश्वस्त हुए. उस महातपस्वी ने सन्त को सन्मार्ग सुझाया. थोड़ी देर सुस्ताकर सन्त तपस्वी के साथ चल दिए . अबकी बार वे उत्तर दिशा की ओर बढ़े.
कुछ ही दूर यात्रा हुई थी कि सन्त को एक महल दिखाई दिया. वह उत्सुकतावश महल के निकट पहुँचे. उन्होंने देखा महल अति सुन्दर और भव्य है. यहाँ के निवासी घनिष्ठ मित्र से लगते हैं, भोजन के लिए नाना पकवान हैं. यहाँ रहकर सुख मिलेगा. यह सोचकर उन्होंने महल में ही रहने का निश्चय किया. महल में उनके रहने की व्यवस्था एक ऐसे कमरे में हुई, जिसमें दरवाजे ही दरवाजे थे. उस कमरे में एक सुन्दर आसन भी था, उस पर वह विराज गए. ठंडी- ठंडी बयार बह रही थी. तभी उनको भूख लग आयी. पलक झपकते ही भोजन-व्यवस्था हो गयी. भोजन के उपरान्त उनको निद्रा देवी ने आ घेरा. यह देखकर महातपस्वी उनसे बोले-बन्धु ! सोओ मत, जागो. सन्त ने आलस्यवश उनकी अनसुनी कर दी और वे सो गए. इतने में वहाँ वंचक आ गए और उनसे कहने लगे-चल उठ कहाँ सो रहा है, जाग ? बड़ा आया-यहाँ सोया है आराम से, तेरे बाप की नगरी है. मालूम है यह वंचकपुरी है. ऐसा कहकर उन्हें शिला पर पटक कर दे मारा और उनका सब कुछ छीन लिया. सन्त बहुत दुखी हुए और मन ही मन पश्चात्ताप करने लगे कि यदि मैं तपस्वी साधक की बात मान लेता तो यह दुर्दशा न होती.
तपस्वी ने उनको इस दशा में देखा तो उनका हृदय करुणा से ओत-प्रोत हो गया . वे बोले-भाई मेरे ! मैंने पहले ही कहा था कि यहाँ सो मत जाग, लेकिन तुमने मेरा कहा माना ही नहीं. खैर घबराओ नहीं, अब फिर हिम्मत कर मेरे पीछे-पीछे आओ.
तपस्वी की वाणी सुनकर उनमें फिर से साहस आ गया और उन्होंने अपने आप को सँभाला. चलते-चलते वे बहुत दूर निकल आए । सन्त ने बहुत ध्यान से देखा, परन्तु तपस्वी नजर नहीं आए. इतने में सुगन्धित पवन का झोंका आया. ऐसी गन्ध सन्त ने पहले कभी न सूँघी थी. उन्हें उसका स्पर्श भी बहुत मधुर लगा. निश्चय ही यहीं-कहीं रमणीय स्थल होगा, यह विचार कर वे कुछ आगे बढ़े, जिस ओर से गंध आ रही थी. न जाने किस प्रेरणा से उस ओर वे आगे बढ़ते रहे. आखिर में वे ब्रह्मपुरी आ पहुँचे. यहाँ पहुँचकर उनको भय नहीं लगा.
इस ब्रह्मपुरी का राजा ब्रह्मदेव एक अलौकिक मंदिर में रहकर शासन करता था . सन्त की इच्छा इस अद्भुत मन्दिर को देखने की हुई. कुछ पग ही धरे थे कि मन्दिर भी उन्हें दिखाई दे गया. सन्त मन्दिर में प्रविष्ट हुए . सामने सिंहासन पर ब्रह्मदेव के शरीर से प्रकाश की अनोखी किरणें निःसृत हो रही थीं . इन दिव्य किरणों से सारा दरबार प्रकाशमान था . मन्दिर को इस निराली छटा से वह मुग्ध होकर बोले-मेरी यात्रा सफल हो गयी. मैं कृतकृत्य हो गया . मेरे समस्त दुःख पलायन कर गए. अब तो मैं यहीं रहूँगा. कितना वैभव है यहाँ के राज्य का . इनके एक ओर तो विवेक नामधारी मंत्री खड़े हैं, तो दूसरी ओर विश्वास नाम का सेवक. समता नामक अनुचर पंखा झल रहा है. एक-एक करके क्षमा-आर्जव आदि नौकर-चाकर सेवा हेतु तैनात हैं.
सन्त ने राजा के चरण-वन्दन की अभिलाषा व्यक्त की. सन्त की अभिलाषा को राजा ने जाना और उनको अपने कर-कमलों द्वारा उठाकर अपनी गोद में कुछ इस तरह बिठाया, जैसे पुत्र को पिता बिठाता है. ब्रह्मदेव की गोद में बैठते ही सन्त जगत को भूल गए.
उधर सन्त परमानन्द सागर में अवगाहन में अवगाहन करने लगे, इधर आचार्य श्रीधर हड़बड़ाकर जाग गए. उनका स्वप्न टूट चुका था. नींद फिर आयी न थी. बस फिर क्या था ? इस विचित्र स्वप्न के अर्थ उनके मन में कुछ इस तरह स्पष्ट होने लगे-अरे यही स्वप्न तो जीवन-कथा है . दुर्गन्धयुक्त कुटिया देह रूप है. मुँह से मलद्वार तक नाला है, जिसमें स्वच्छ पदार्थ भी प्रवेश पाकर विष्ठा रूप में परिणत हो जाते हैं. मच्छर, बर्र और ततैये स्वार्थी-सम्बन्धी-जन हैं, जो दिन-रात काटते रहते हैं. सन्त रूपी प्राणी सुख-शान्ति के लिए अज्ञानतावश परिधि में भ्रमण करता रहता है, किन्तु उसके हाथ मात्र निराशा ही लगती है. देवर्षि और तपस्वी गुरु रूप हैं, जो पथ का पाथेय देते हैं, तब कहीं जाकर सन्तात्मा परमात्मा बन पाती है. स्वप्न में निहित सत्य के बोध ने उनके विवेक-चक्षु खोल दिए और श्रीधर ब्रह्मवेत्ता श्रीमत् श्रीधराचार्य के रूप में लोक-विख्यात हो गए .
सौजन्य -श्री राम शर्मा की अखंड ज्योति पत्रिका

