भारत में ज्योतिष शास्त्र का प्रयोग वास्तु सम्बन्धी दोषों के निवारण के लिए प्राचीन काल से होता आ रहा है. वैदिक काल में वास्तु के अनेक सन्दर्भ मिलते हैं, रामायण काल में भी इसके साक्ष्य वाल्मीकि रामायण से प्राप्त होते हैं. किष्किन्धा में निवास करते समय राम लक्ष्मण से कहते हैं –
प्राग् उदक् प्रवणे देशे गुहा साधु भविष्यति |
पश्चात् च एव उन्नता सौम्य निवाते अयम् भविष्यति || ४-२७-१२
हे सौम्य ! यहाँ स्थान ईशान कोण से नीचा है अत: यह गुफा हमारे निवास के लिए अच्छी होगी. यह गुफा नैरित्य कोण की तरफ से ऊँची होने से हवा और वर्षा से हमारा बचाव करने के लिए अच्छी होगी.
रामायण काल के बाद पुराण और महाभारत काल में ज्योतिष का उपयोग व्यापक स्तर पर वास्तु दोषों के निवारण के लिए किया जाने लगा.
गृह में पंचतत्वों के सामंजस्य का विशेष ध्यान रखा जाता है, गृह एक स्पेश है (जिसमे आकाश है ) वेदों में आकाश को अन्य चार तत्वों का कारण कहा गया है –
तस्माद वा एतस्माद आत्मनः आकाशः संभूतः | आकाशात वायु:| वायो:अग्निः | अग्ने: आपः | अद्भ्यः पृथिवी |
अर्थात यदि स्पेश सही है तो सभी अन्य तत्व भी सही रहते हैं. इसलिए भवन निर्माण में सर्वप्रथम भूमि की परीक्षा की जाती है क्योंकि जहाँ भवन बनेगा उस भूमि की ज्यामिति, उसकी मिट्टी का रंग, इसका रस, गंध, शब्द, स्पर्श, उसकी दिशा इत्यादि को सकारात्मक प्रभाव देने वाला होना चाहिए.
नारद पुराण के अनुसार गृह निर्माण के लिए कैसी जमीन होनी चाहिए इसके बावत कहा गया है की पूर्व, उत्तर और ईशान कोण में भूमि नीची हो तो मनुष्यों के लिए वृद्धिकारक होती है. अन्य दिशाओं में नीची भूमि सदैव हानिकारक होती है.
अपनी जन्म राशि से दूसरी, नवीं, पांचवीं, दशवीं और ग्यारहवीं राशि की दिशा में घर बनाना चाहिए या उस दिशा में स्थित शहर में निवास करना चाहिए.



मान लो सुजाता जन्म नक्षत्र शवर्ग में मेष में है और यदि ग्राम का नाम मेरठ है जो ‘प फ ब भ म’ तुला में पढ़ रहीं है जो मेष से सातवीं है इसलिए यह अशुभ है. जन्म नक्षत्र से नगर या गाँव नक्षत्र की राशि 2, 5, 9, 10, 11 में पड़े तो शुभ जाननी चाहिए.

