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आत्मपूजा उपनिषद पर हमने २०२२ में एक संक्षिप्त भाष्य किया था जिसे अमेजन किंडल से खरीदा और पर पढ़ा जा सकता है. यह अद्वैत वेदांत की सूक्ष्म सूत्रबद्ध उपनिषद है. जो कुछ सूत्रबद्ध है उसकी व्याख्या भी इंगित मात्र से ही की जाती है. यह ब्रह्म विद्या की परम्परा है.

निश्चलत्वं प्रदक्षिणम्

उसका आनंद में निश्चलत्व ही प्रदक्षिणा है। देवता के षोडशोपचार पूजन में एक उपचार प्रदक्षिणा भी कहा गया है। सभी देवता की प्रदक्षिणा के नियम अलग अलग हैं। देवी दुर्गा की एक प्रदक्षिणा करनी चाहिए, गणेश की भी एक बार प्रदक्षिणा करते हैं, सूर्य के लिये दो बार, भगवान शिव की तीन बार प्रदक्षिणा करते हैं,भगवान विष्णु के लिये चार बार और अश्वत्थ वृक्ष के लिये सात बार प्रदक्षिणा का नियम है। देवता की पूजा में प्रदक्षिणा के स्वरूप को समझने से पूजा रहस्य को भी समझ सकते हैं। प्रदक्षिणा की परम्परा हिन्दू, बौध और जैन तीनो ही धर्मों में है और उपासना का अंग है।

पीछे कहे गये सूत्र में परिपूर्ण चन्द्रामृत रस का एकीकरण को नैवेद्य कहा है, अब उस अमृतसुधा का नैवेद्य भोग लगा कर आनंद में स्थिर होने को ही प्रदक्षिणा कहा है। देवता की विविध उपचारों से पूजा भगवान की प्रसन्नता और परमानन्द की प्राप्ति के लिए ही की जाती है। आनंद ही ब्रह्म है। आनन्द में स्थित होना ही सर्वकर्म सन्यासी की प्रदक्षिणा है।

आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्। आनन्दाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते​।।
आनन्देन जातानि जीवन्ति।। आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशन्ति।। इति श्रुते:

आत्मतत्व में प्रतिष्ठा निरतिशय आनंद में प्रतिष्ठा है इसलिए अद्वैत भाव में प्रतिष्ठा को परमानन्दलक्षणा कहा गया है। स्वरूप में अवस्थान चिदघन, सदघन और आनन्दघन ब्रह्म में प्रतिष्ठा है। चित्स्वरूपं निरञ्जनं परब्रह्म में प्रतिष्ठा से निश्चलत्व की प्राप्ति होती है।

-राजेश शुक्ला ‘गर्ग’