Spread the love

स्वस्तिक वैदिक धर्म का प्रमुख सिंबल है। इसका प्रयोग हर शुभ काम करने की परंपरा है। इस प्रतीक को लेकर विदेशियों ने भांति भांति के कन्फ्यूजन पैदा करने की कोशिश की है। सनातन हिन्दू धर्म मे स्वस्तिक और प्रणव अर्थात ॐ में कोई भेद नहीं किया गया है। कोई भी विदेशी विचारक इस बात को खारिज नहीं कर सकता कि ॐ वैदिक है , वेद ॐ का ही विस्फार है। जब ये सच है तो स्वस्तिक भी वैदिक ही है और वेदों में ही स्वस्तिवाचन की परंपरा है। स्वास्तिक का ऐसा व्यापक प्रयोग दुनिया की किसी सँस्कृति में नहीं रहा है। स्वस्तिक संस्कृत शब्द है जो मूल सु और अस्ति से बना है। सु का अर्थ होता शुभ, अस्ति का अर्थ है “होना”  अर्थात आपका शुभ हो। इसीलिए हर यज्ञ, यजन, शुभ कर्म में स्वस्तिवाचन किया जाता है। कलश पर स्वस्तिक चित्रण, यज्ञ वेदी पर, विवाह मंडप पर या पूजन स्थल पर इसका अंकन किया जाता है। हिन्दू अपने घरों के द्वार पर भी इसका चित्रण करते हैं।

प्रणव अर्थात वैदिक ॐ और स्वास्तिक में कोई भेद नहीं है। वेद में स्प्ष्ट रूप से लिखा है कि सूर्य और प्राण में भी कोई भेद नहीं है इसलिए वेदों में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है। सूर्य का स्वर और प्राण का स्वर एक ही है इसलिए भोजन करने के बाद ॐ का स्वर स्वाभाविक रूप से मुंह से निकलता है। 
एष प्रणव  ओमेति ह्येष स्वरन्नेति -सामवेद 

यह जो प्रणव है वो ॐ ऐसी ध्वनि करते हुए चलता है। हिन्दू धर्म का सामवेद “स्वर” विज्ञान के रहस्यों को समेटे हुए है, यह विश्व का सबसे बड़ा स्वर विज्ञान है। भगवान श्री कृष्ण ने सामवेद को अपना स्वरूप बताया है। 

वैदिक काल मे पृथ्वी का ध्रुव जितने अंश पर था वह लगभग 25अंश खिसक गया है। वैदिक युग मे नक्षत्रों की गिनती कृतिका से ही होती थी, वसंत सम्पत वृष राशि में इसी नक्षत्र पर पड़ता था। अब वसंत सम्पात मेष में अश्विनी पर पड़ता है इसलिए अब नक्षत्रो की गणना अश्विनी नक्षत्र से होती है। जब वसंत सम्पात वृष राशि में पड़ता था तब इस बिंदु से ही ऋषियों ने अंतरिक्ष मे भी स्वस्तिक के स्वरूप को देखा होगा। 

ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः।

स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।

स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः।

स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः

देवताओं में श्रेष्ठ गुरु जनों की बात सुनने वाले वृद्धश्रवा यानी लम्बे कानों वाला इंद्र, सर्व ज्ञानी सबको पालने वाला पूषा, निर्बाध गति से उड़ने वाले गरुड़ पर सवारी करने वाले विष्णु और बृहस्पति हमारे लिए कल्याणकारी, मंगल करने वाले तथा समृद्धि प्रदान करने वाले हों। 

इस ऋचा में चित्रा, रेवती, श्रवण, पुष्य इन चार नक्षत्रों का जिक्र है। चित्रा नक्षत्र के स्वामी वृद्धश्रवा इंद्र हैं,  रेवती के स्वामी पूषा हैं , श्रवण नक्षत्र के स्वामी विष्णु है , पुष्य के स्वामी बृहस्पति हैं। ये चारों एक दूसरे से 180 अंश की दूरी पर स्थित हैं और इससे स्वस्तिक का आकार बनता है। इसे ऋषयों ने देखा था। इस तरह हम देखेंगे कि स्वस्तिक कोई सिंबल नहीं है जिसको महज कल्पना से बना दिया गया था । यह सृष्टि का सार है। छान्दोग्य उपनिषद में इसे “सतिया” कहा गया है क्योंकि यह ॐ ही है। यह सृष्टि का सत्य है। 

इस सत्य को बौद्ध धर्म और जैन धर्म दोनों में स्वीकार किया गया है। जैन दिगम्बरों के हृदय पर स्वस्तिक अंकित किया जाता है। यह इस बात को स्पष्ट करता है कि स्वस्तिक इस सृष्टि का प्राण है। बौद्ध धर्म में भी ॐ के बगैर कोई धार्मिक अनुष्ठान शुरू नहीं होता। ॐ वेदों का आदि स्वर है। हरएक ऋचा से पूर्व प्रणव लगा होता है। मन्त्र, कर्म और यज्ञ सबका प्रारम्भ ॐ से होता है।