वैदिक ज्योतिष के होरा शास्त्रों में सप्तर्षियों का कोई जिक्र नहीं है और इसकी फलादेश में कोई उपयोगिता नहीं है. वास्तव में सप्तर्षि ज्योतिष विद्या लुप्त हो जाने से गुप्त काल के बाद के होरा शास्त्र लिखने वाले ज्योतिषियों को इसका ज्ञान नहीं था. हिन्दू धर्म के पुराण भारत के इतिहास और परम्परा का भी जिक्र करते हैं इसलिए पुराणों में सप्तर्षियों के नक्षत्रों में स्थिति का जिक्र है. यह गणित कैसे किया जाता था यह ज्ञात नहीं है. पुराण और महावंश इत्यादि प्राचीन ग्रन्थों के उद्धरणों से यह ज्ञात है कि राजा परीक्षित के राज्याभिषेक के समय सप्तर्षि मघा नक्षत्र में स्थित थे. हिन्दू धर्म ग्रन्थों में सप्तर्षि सृष्टि के जनक हैं और प्रजापति कहे जाते हैं.
कश्यपोत्रिर्भरद्वाजो विश्वामित्रोथ गौतमः।
जमदग्निर्वसिष्ठश्च सप्तैते ऋषयः स्मृताः॥
दहंतु पापं सर्व गृह्नन्त्वर्ध्यं नमो नमः॥
कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि, वसिष्ठ को सप्त ऋषियों में माना गया है. हर मन्वन्तर के सप्तर्षि अलग अलग होते हैं. इनका स्थान सप्तर्षि मंडल में है जो ध्रुव के साथ गतिशील रहते हैं.
भागवत पुराण 12.2.27-28
सप्तर्षीणां तु यौ पूर्वौ दृश्येते उदितौ दिवि ।
तयोस्तु मध्ये नक्षत्रं दृश्यते यत् समं निशि ॥ २७ ॥
तेनैव ऋषयो युक्तास्तिष्ठन्त्यब्दशतं नृणाम् ।
ते त्वदीये द्विजा: काल अधुना चाश्रिता मघा: ॥ २८ ॥
तुम्हारे जन्म से लेकर महापद्मं नंद के शासन तक 1500 वर्ष लगेगा. जिस समय सप्तऋषियों का उदय होता है उस समय पहले उनमे से दो तारे ही दिखाई पड़ते हैं. उनके बीच के दक्षिणत्तर रेखा पर सम भाग में एक नक्षत्र दिखाई पड़ता है. उस नक्षत्र के साथ सप्तऋषि गण मनुष्यों की गणना से सौ वर्ष तक रहते हैं. तुम्हारे जन्म से अब तक वे मघा नक्षत्र में ही हैं.
भागवत पुराण 12.2.32
यदा देवर्षय: सप्त मघासु विचरन्ति हि ।
तदा प्रवृत्तस्तु कलिर्द्वादशाब्दशतात्मक: ॥ ३१ ॥
परीक्षित ! जिस समय सप्तर्षि मघा नक्षत्र पर रहते हैं उसी समय कलियुग प्रारम्भ होता है. कलियुग की आयु देवताओं की वर्ष गणना के अनुसार चार लाख बत्तीस हजार वर्ष है.
यदा मघाभ्यो यास्यन्ति पूर्वाषाढां महर्षय: ।
तदा नन्दात् प्रभृत्येष कलिर्वृद्धिं गमिष्यति ॥ ३२ ॥
जिस समय सप्तर्षि मघा नक्षत्र से चलकर पूर्वाषाढ में होंगे उस समय नन्द का राज्य होगा. तभी से कलियुग की वृद्धि शुरू होगी.
भागवत के अनुसार सप्तर्षि एक नक्षत्र में 100 वर्ष रहते हैं. बताया गया है कि परीक्षित के समय से नन्दवंश (महा पद्म 345–322 BCE) के प्रारम्भ तक 1500 साल बीत चुके थे और सप्तर्षि पूर्वाषाढ नक्षत्र में चल रहे थे. महाभारत से पूर्व वैदिक काल में सप्तर्षि सम्वत का प्रचलन था जो अब लुप्त हो गया है. सप्तर्षि सम्वत और ज्योतिष प्रारम्भिक बौध काल तक प्रचलन में था. सप्तर्षि प्रत्येक नक्षत्र में 100-100 वर्ष ठहरते हैं. इस तरह 2700 साल पर सप्तर्षि एक चक्र पूरा करते हैं. इस चक्र का सौर गणना के साथ तालमेल रखने के लिए इसके साथ 18 वर्ष और जोड़े जाते हैं अर्थात् 2718 वर्षों का एक चक्र होता है. एक चक्र की समाप्ति पर फिर से नई गणना प्रारंभ होती है. इन 18 वर्षों को संसर्पकाल कहते हैं. जब सृष्टि प्रारंभ हुई थी उस समय सप्तर्षि श्रवण नक्षत्र में थे और आजकल अश्वनी नक्षत्र में स्थित हैं. प्रसिद्ध ग्रंथ “महावंश” में एक जगह लिखा गया है-
जिन निवाणतो पच्छा पुरे तस्साभिसेकता।साष्टा रसं शतद्वयमेवं विजानीयम् ॥
इसका अर्थ है सम्राट् अशोक का राज्याभिषेक सप्तर्षि संवत् 6208 में हुआ। अर्थात यह पूर्व बौधकाल तक अस्तित्व में था.

