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भगवद्गीता में धर्म और अधर्म की सुंदर व्याख्या की गई और कई तरह से की गई है. भगवद्गीता में मिथ्याचारी भी अधर्मी की कोटि में ही गिना गया है. भगवदगीता में अधर्मी की परिभाषा देते हुए भगवान ने कहा है कि अधर्मी वह है जो आसुरी सम्पत को धारण किये हुए है, यह मिथ्याचारी है. धर्म का ढोंग या दिखावा करता है लेकिन मूलभूत रूप से वह नास्तिक या चार्वाक है. खुद को त्यागी बताता है लेकिन 10 लाख का सूट पहनता है, दुनिया की महंगी कार पर चलता है और भोग के उत्तम साधन जुटा कर रखता है. धर्म का दिखावा ऐसा करता है कि लोटे में बिना जल लिए ही अर्घ्य डालता है. इस परिभाषा के अनुसार वह व्यक्ति वास्तव में अधर्मी है जो बाहर से त्याग का दिखावा करता है, यह बताता है कि वह ब्रह्मचारी है लेकिन मन ही मन स्त्री के बारे में चिन्तन करता रहता है और जब उसे मौका मिलता है तो उसका बलात्कार कर देता है. इस कोटि में आशाराम, नित्यानंद जैसे अधर्मी हैं. हिंदुत्व के नेताओं का स्तर इससे और भी ऊपर है. दूसरी परिभाषा मनुष्य की प्रकृति के अनुसार की गई है. इसका वृहद वर्णन भगवान ने भगवद्गीता के सोलहवें अध्याय में किया है. भगवान कहते हैं –

दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव।।16.5।।
हे पाण्डव ! दैवी सम्पदा मोक्ष के लिए और आसुरी सम्पदा बन्धन के लिए मानी गयी है, तुम शोक मत करो, क्योंकि तुम दैवी सम्पदा को प्राप्त हुए हो।।


यहाँ जो पहली दैवी सम्पत्ति धारण करने वाले हैं उनमें अर्जुन, पांडव पक्ष के लोग हैं, विदुर आदि है तथा साधु संत हैं जबकि दूसरी आसुरी सम्पद (सम्पत्ति ) धारण करने वाले कौरव पक्ष के लोग हैं. वे भौतिकवादी और अधर्मी हैं. आसुरी लोगों के वर्णन में हम ऐसे नितान्त संशयी और भौतिकवादी पुरुष को पहचान सकते हैं, जो जीवन की ओर केवल अपनी सीमित बुद्धि के दृष्टिकोण से ही देखता है. वह किसी उदात्त जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकता है. उसके लिए चरम लक्ष्य धन का संग्रह और भोगविलास है. इसके लिए वह किसी सीमा तक जा सकता है और अधर्म कर सकता है. वह लोकनीति, धर्म-समाज, परम्परा, कानून, सम्विधान और श्रुतियां इन सबको नहीं मानता. आसुरी सम्पद के सभी गुण जैसे– असत्य, झूठ का विस्तार, घृणा, मिथ्याचार, हिंसा, ठगी, अपनेको सबसे अधिक पूज्य माननेवाले, अकड़ रखनेवाले तथा धन और मानके मदमें चूर, कामी, बलात्कार का समर्थन करने वाले, लूटपाट करने वाले, समाज में अशांति फ़ैलाने वाले, बुलडोजर न्याय इत्यादि असुरी सम्पत धारण करने वाले आपको नरेंद्र मोदी के हिंदुत्व में प्राप्त होंगे. हिंदुत्व के इस असुरी सम्पद के कारण हिंदुत्व शासित राज्यों में लड़कियों का बलात्कार चरम पर है, महिलाओं का बड़ी संख्या में गायब होना, बलात्कारियों का संरक्षण, हिंसा और लूटपाट अपने चरम पर है. अपने अधर्म को प्रोपगेंडा द्वारा धार्मिक मिथ्याचार से, मन्दिर के नाम पर ये छुपाना चाहते हैं.
  इस दूसरी असुरी प्रकृति के लोगों का वर्णन करते हुए भगवान कहते हैं –

असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम्।
अपरस्परसम्भूतं किमन्यत्कामहैतुकम्।।16.8।।

ये अधर्मी आसुरी सम्पत को धारण किये हुए चार्वाक के मत को ही सबसे श्रेष्ठ कहते हैं. ये भौतिकवाद को ही अंतिम सत्य मानते हैं. वे कहते हैं कि यह जगत् आश्रयरहित, असत्य और ईश्वर रहित है, यह स्त्रीपुरुष के परस्पर कामुक संबंध से ही उत्पन्न हुआ है, इसका दूसरा कारण क्या हो सकता है? 

एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।
प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः।।16.9।।
इस प्रकार नास्तिक दृष्टिका आश्रय लेनेवाले नष्टस्वभाव के अल्प बुद्धि वाले, घोर कर्म करने वाले लोग जगत् के शत्रु के रूप में उसका नाश करने के लिए उत्पन्न होते हैं।।
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः।।16.10।
दम्भ, मान और मद से युक्त कभी न पूर्ण होने वाली कामनाओं का आश्रय लिये, मोहवश मिथ्या धारणाओं को ग्रहण करके ये अशुद्ध संकल्पों के लोग जगत् में कार्य करते हैं।।

आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः।
ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्।।16.12।।
सैकड़ों आशापाशों से बन्धे हुये, काम और क्रोध के वश में ये लोग विषयभोगों की पूर्ति के लिये अन्यायपूर्वक धन का संग्रह करने के लिये चेष्टा करते हैं।।
वह शत्रु तो हमारे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओंको भी हम मार डालेंगे। हम सर्वसमर्थ हैं। हमारे पास भोग-सामग्री बहुत है। हम सिद्ध हैं। हम बड़े बलवान् और सुखी हैं। मैं धनवान् और श्रेष्ठकुल में जन्मा हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है?”,’मैं यज्ञ करूंगा’, ‘मैं दान दूँगा’, ‘मैं मौज करूँगा’ – इस प्रकार के अज्ञान से वे मोहित होते हैं।।

अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ।।16.16।।
कामनाओंके कारण तरह-तरहसे भ्रमित चित्तवाले, मोह-जालमें अच्छी तरहसे फँसे हुए तथा पदार्थों और भोगोंमें अत्यन्त आसक्त रहनेवाले मनुष्य भयङ्कर नरकोंमें गिरते हैं।

आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्।।16.17।।
अपनेको सबसे अधिक पूज्य माननेवाले, अकड़ रखनेवाले तथा धन और मानके मदमें चूर रहनेवाले वे मनुष्य दम्भसे अविधिपूर्वक नाममात्र का धर्म करते दिखते हैं।

कालनेमि समूह का यह मिथ्याचार सनातन धर्म के यज्ञ का अपमान है. इसे ही आसुरी कर्म कहते है.

अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः।।16.18।।
अहंकार, बल, दर्प, काम और क्रोध के वशीभूत हुए परनिन्दा करने वाले ये लोग अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझ (परमात्मा) से द्वेष करने वाले होते हैं।।

तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु।।16.19।।
ऐसे उन द्वेष करने वाले,  क्रूरकर्मी और नराधमों को मैं संसार में बारम्बार (अजस्रम्) आसुरी योनियों में ही गिराता हूँ अर्थात् उत्पन्न करता हूँ।।
हे कुन्तीनन्दन ! वे मूढ जन्म-जन्मान्तर तक आसुरी योनिको प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अधिक अधम गतिमें अर्थात् भयङ्कर नरकोंमें चले जाते हैं।