Spread the love

रामकृष्ण भक्ति, ज्ञान एवं योग की तत्वत: व्याख्या कर सकने में सक्षम हुए थे। लेकिन हमे यह जानना चाहिए कि रामकृष्ण में दो व्यक्तित्व थे – एक तरफ तो वात्सल्य भाव को जीने वाला काली भक्त, दूसरी तरफ तंत्रमार्ग का साधक जिसके अवचेतन में काली की विपरीत रत्यासक्त वह छवि भी है। इस छवि के साथ यदि वे खुद को भाव में कालीरूप समझते हैं तो उन्हें एक पुरुष की आवश्यकता पड़ेगी, काली का विषय तो शिव ही हैं जिससे वो मिलन करना चाहती हैं !
रामकृष्ण का काली से सिर्फ वात्सल्य सम्बन्ध ही नहीं था, इसमें कुछ व्यतिरेक भी हुआ है। स्त्रैचित्त (फेमिनिन) रामकृष्ण में एक परवर्जन उस समय परिलक्षित होता है जब वे तोतापूरी से मिलते हैं। जिन पुरुषों में पुरुषत्व दिखता था उनके प्रति उनका विशेष आकर्षण हुआ था। विवेकानंद और तोतापुरी के बारे में कही हुई उनकी कुछ बातें सेक्सुअल परवर्जन की तरफ ही इंगित करती हैं। नरेंद्र (विवेकान्द) में एक डोमिनेटिंग व्यक्तित्व थ, एक पुरुषत्व था जो अन्य शिष्यों में नहीं दिखता था। रामकृष्ण इस नरेंद्र के प्रति अन्यों की तुलना में ज्यादा आकर्षित हुए थे। रामकृष्ण ने जब भी नरेंद्र की आँखों की सुन्दरता का वर्णन किया या उसे अगिकृत करने की मंशा दिखाई तो विवेकान्द को यह कुछ अटपटा लगा, वितृष्णा सी हुई- अच्छा नहीं लगा था। उसकी हर बातें उन्हें अच्छी ही लगती थीं।

कहते थे-” देखो, नरेंद्र गाने-बजाने, पढने लिखने –सब में अच्छा है। उस दिन देखा , केदार के संग तर्क कर रहा था। केदार की बातों को कच कच करके काटने लगा !” रामकृष्ण को चीजो को देखने का ढंग वैसा ही था जैसा भक्तों का होता है, उनकी ज्यादातर बातें सिम्बोलिक होती थी और पैरब्‌ल्‌ होती थीं। नरेंद्र उनकी नजर में ” पूंछ में हाथ लगाते ही टिडिंग टिडिंग कर उछलने वाला बैल था।” रामकृष्ण कहते थे -“देखो, किसान बाजार में बैल खरीदने जाते हैं। वे तेज बैल और मंदे बैल खूब पहचानते हैं। पूंछ के नीचे हाथ देकर देखते हैं। कोई कोई बैल पूंछ में हाथ देते ही लेट जाते हैं। तब उसे नहीं खरीदते कोई कोई बैल पूंछ में हाथ लगाते ही टिडिंग टिडिंग कर उछलने लगते हैं, उसी बैल को पसंद कर खरीद लेते हैं। नरेंद्र है उसी बैल की जाति, भीतर खूब तेज है।”


विवेकानंद के बारे में रामकृष्ण ने जो कुछ भी कहा है उसका उद्धरण रामकृष्ण मिशन से छपी उनके चरितामृत, लीलाप्रसंग इत्यादि में मिलता है। इनका पब्लिकेशन बहुत बाद में हुआ है तब जब मिशन स्थापित हो गया था और शिष्य रामकृष्ण को अवतार घोषित कर चुके थे। इस अवतार की घोषणा में विवेकान्द ने भी प्रमुख स्थान प्राप्त किया है-ठाकुर के साथ उनकी पूजा की विधियाँ, स्तोत्र इत्यादि लिखे गये हैं।
रामकृष्ण को पूर्ण रूप से गुरु मान कर शरणागति लेने से पूर्व विवेकान्द दक्षिणेश्वर आते जाते रहते थे। उनकी आध्यात्मिक यात्रा के प्रारम्भिक दिनों में हुई कुछ बातें महत्वपूर्ण हैं। नरेंद्र दक्षिणेश्वर में मास्टर, गिरीश, रखाल, विजय, महिमा इत्यादि शिष्यों के साथ नये नये सिद्ध हुए रामकृष्ण के उपदेश सुनते, किसी किसी के साथ तार्किक बहस करते, रामकृष्ण के उपदेश के बीच में भी कुछ कह पड़ते। रामकृष्ण उनके आपस में धर्म के विषयों पर वार्तालाप, उनके तर्क वितर्क को मजा लेकर सुनते थे, बीच बीच में उन्हें रोक कर कहते – अरे, ऐसा नहीं वैसा है ! नरेंद्र की तीक्ष्ण बुद्धि को प्रारम्भ से ही वे देख-समझ रहे थे और भीतर भीतर समझते थे कि यह लड़का ही उनका काम करने में पूर्ण सक्षम हो सकता है। नरेंद्र के न आने पर रामकृष्ण परेशान होते थे, अक्सर व्याकुल हो जाते थे। यह व्याकुलता स्त्रैण चित्त की व्याकुलता थी। रामकृष्ण कहते थे -“नरेंद्र पुरुष है, गाड़ी पर तभी तो दाई तरफ बैठता है। भवनाथ का स्त्री भाव है, तभी उसे दूसरी ओर बैठने देता हूँ।” रामकृष्ण स्वयं भी नरेंद्र को पुरुष मानते थे- ” नरेद्र सभा में रहता है तो मेरा बल होता है।” नरेंद्र एक पुरुष कबूतर है, मैसकुलिन है, पुरुषवादी है और उसकी धार्मिक सोच में भी यह मैस्कुलिन भाव है। सब तरफ पुरुष की सत्ता है। नरेंद्र के प्रति रामकृष्ण का भाव एक स्त्री का भाव है। नरेंद्र और दूसरे लडके – गिरीश, राम, हरिपद, मास्टर, रखाल, बलराम इत्यादि को नारायण मानते हैं, नित्य सिद्ध कहते थे। नरेंद्र में पुरुषत्व अधिक देखते और उसकी काबिलियत पर ‘वाह वाह ‘ करते।

एकदिन अवतार विषय पर चर्चा होने लगी- नरेंद्र, गिरीश, राम, हरिपद, मास्टर, रखाल, बलराम इत्यादि शिष्य उपस्थित थे। नरेंद्र नहीं मानते कि ईश्वर मानवदेह में अवतार लेता है, गिरीश का पक्का विश्वास है कि ईश्वर युग युग में अवतार लेते हैं। रामकृष्ण यह देख बोले-” दोनों थोडा अंग्रेजी में विचार करो, मैं देखूंगा।” नरेंद्र बोले- “ईश्वर अनंत है। उनकी धारणा करने की सामर्थ्य हम लोगों में कहाँ? वे सबके भीतर हैं; कोई एक जन के भीतर आये हैं, ऐसा नहीं है !?” रामकृष्ण उनपर स्नेह दर्शाते बोले-” उसका जो मत है, मेरा भी यही मत है। वे सर्वत्र हैं। परन्तु एक बात है -शक्ति विशेष है। वे कहीं पर अविद्या शक्ति के प्रकाश में हैं, कहीं पर विद्या शक्ति के प्रकाश में हैं। किसी आधार में शक्ति अधिक है, किसी आधार में शक्ति कम है। इसलिए सब मनुष्य समान नहीं हैं। ” (इस प्रकार तर्क होता रहा। रामकृष्ण को तर्क अच्छा नहीं लगता था फिर भी विरक्त मन से सुन रहे है। )

यह लेख मेरी किताब ” रामकृष्ण परमहंस : आध्यात्म प्रसंग -१” (Hindi Edition) Kindle Edition एक छोटा अंश है .

इस किताब को पढने के लिए यहाँ जाएँ