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पुराण लेखन अपने उत्कर्ष में श्रीमदभागवत में ही दिखता है. भारत में सनातन धर्म में लेखन का इतिहास सूत्र काल के मिनिमलिज्म से रामायण और पौराणिक काल के कथा विस्तार तक 5000 साल से ज्यादा पुराना है. संस्कृत कथा साहित्य में वाल्मीकि रामायण के बाद भागवत पुराण ही सबसे उत्कृष्ट है. भागवत में अनेक स्तुतियाँ है जो बहुत ही सुंदर हैं, उनमें कुंती द्वारा की गई यह स्तुति भी भक्ति शास्त्र के अनुसार बहुत सुंदर है. यहाँ एक भक्त के रूप में कुंती भगवान से विपत्ति का वरदान मांगती है. जब भक्ति उत्कर्ष को प्राप्त करती है तो भक्त का प्रयोजन एक मात्र ईश्वर की प्रीति को प्राप्त करना रह जाता है ऐसे में कुन्ती विपत्ति का वरदान मांगती है ताकि क्षण भर भी ईश्वर की विस्मृति न हो क्योंकि विपत्ति में ही मनुष्य ईश्वर को याद करता है. ऐसे भक्त 00.01 प्रतिशत होते हैं.

विपद: सन्तु न: शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो ।
भवतो दर्शनं यत्स्याद पुनर्भवदर्शनम् ।।
जन्मैश्वर्य श्रुतश्रीभिरेधमानमद: पुमान् ।
नैवार्हत्यभिधातुं वै त्वामकिंचनगोचरम् ।।
नमोऽकिंचनवित्ताय निवृत्तगुणवृत्तये ।
आत्मारामाय शान्ताय कैवल्यपतये नम: ।। (श्रीमद्भागवत १।८।२५-२७)

‘जगद्गुरो श्रीकृष्ण ! हम लोगों के जीवन में सर्वदा पद-पद पर विपत्तियां आती रहें; क्योंकि विपत्तियों में ही निश्चित रूप से आपके दर्शन हुआ करते हैं और आपके दर्शन होने पर फिर पुनर्जन्म का चक्र मिट जाता है. ऊंचे कुल में जन्म, ऐश्वर्य, विद्या और सम्पत्ति के कारण जिसका मद बढ़ रहा है, वह मनुष्य तो आपका नाम भी नहीं ले सकता; क्योंकि आप तो उन लोगों को दर्शन देते हैं, जो अकिंचन (वे निर्धन जिनके पास कुछ भी अपना नहीं है) हैं. आप अकिंचनों के परम धन हैं. आप माया के प्रपंच से सर्वथा निवृत्त हैं, नित्य आत्माराम और परम शान्तस्वरूप हैं. आप ही कैवल्य मोक्ष के अधिपति हैं. मैं आपको बारम्बार नमस्कार करती हूँ.’

नमस्ये पुरुषं त्वाद्यमीश्वरं प्रकृतेः परम्।
अलक्ष्यं सर्वभूतानामन्तर्बहिरवस्थितम्॥१८॥

मायाजवनिकाच्छन्नमज्ञाधोक्षजमव्ययम्।
न लक्ष्यसे मूढदृशा नटो नाट्यधरो यथा॥१९॥

तथा परमहंसानां मुनीनाममलात्मनाम्।
भक्तियोगविधानार्थं कथं पश्येम हि स्त्रियः॥२०॥

कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनन्दनाय च।
नन्दगोपकुमाराय गोविन्दाय नमो नमः॥२१॥

नमः पङ्कजनाभाय नमः पङ्कजमालिने।
नमः पङ्कजनेत्राय नमस्ते पङ्कजाङ्घ्रये॥२२॥

यथा हृषीकेश खलेन देवकी कंसेन रुद्धातिचिरं शुचार्पिता।
विमोचिताहं च सहात्मजा विभो त्वयैव नाथेन मुहुर्विपद्गणात्॥२३॥

विषान्महाग्नेः पुरुषाददर्शनादसत्सभाया वनवासकृच्छ्रतः।
मृधे मृधेऽनेकमहारथास्त्रतो द्रौण्यस्त्रतश्चास्म हरेऽभिरक्षिताः॥२४॥

विपदः सन्तु ताः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो।
भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम्॥२५॥

जन्मैश्वर्यश्रुतश्रीभिरेधमानमदः पुमान्।
नैवार्हत्यभिधातुं वै त्वामकिञ्चनगोचरम्॥२६॥

नमोऽकिञ्चनवित्ताय निवृत्तगुणवृत्तये।
आत्मारामाय शान्ताय कैवल्यपतये नमः॥२७॥

मन्ये त्वां कालमीशानमनादिनिधनं विभुम्।
समं चरन्तं सर्वत्र भूतानां यन्मिथः कलिः॥२८॥

न वेद कश्चिद्भगवंश्चिकीर्षितं तवेहमानस्य नृणां विडम्बनम्।
न यस्य कश्चिद्दयितोऽस्ति कर्हिचिद्द्वेष्यश्च यस्मिन्विषमा मतिर्नृणाम्॥२९॥

जन्म कर्म च विश्वात्मन्नजस्याकर्तुरात्मनः।
तिर्यङ्नॄषिषु यादःसु तदत्यन्तविडम्बनम्॥३०॥

गोप्याददे त्वयि कृतागसि दाम तावद्या ते दशाश्रुकलिलाञ्जनसम्भ्रमाक्षम्।
वक्त्रं निनीय भयभावनया स्थितस्य सा मां विमोहयति भीरपि यद्बिभेति॥३१॥

केचिदाहुरजं जातं पुण्यश्लोकस्य कीर्तये।
यदोः प्रियस्यान्ववाये मलयस्येव चन्दनम्॥३२॥

अपरे वसुदेवस्य देवक्यां याचितोऽभ्यगात्।
अजस्त्वमस्य क्षेमाय वधाय च सुरद्विषाम्॥३३॥

भारावतारणायान्ये भुवो नाव इवोदधौ।
सीदन्त्या भूरिभारेण जातो ह्यात्मभुवार्थितः॥३४॥

भवेऽस्मिन्क्लिश्यमानानामविद्याकामकर्मभिः।
श्रवणस्मरणार्हाणि करिष्यन्निति केचन॥३५॥

शृण्वन्ति गायन्ति गृणन्त्यभीक्ष्णशः स्मरन्ति नन्दन्ति तवेहितं जनाः।
त एव पश्यन्त्यचिरेण तावकं भवप्रवाहोपरमं पदाम्बुजम्॥३६॥

अप्यद्य नस्त्वं स्वकृतेहित प्रभो जिहाससि स्वित्सुहृदोऽनुजीविनः।
येषां न चान्यद्भवतः पदाम्बुजात्परायणं राजसु योजितांहसाम्॥३७॥

के वयं नामरूपाभ्यां यदुभिः सह पाण्डवाः।
भवतोऽदर्शनं यर्हि हृषीकाणामिवेशितुः॥३८॥

नेयं शोभिष्यते तत्र यथेदानीं गदाधर।
त्वत्पदैरङ्किता भाति स्वलक्षणविलक्षितैः॥३९॥

इमे जनपदाः स्वृद्धाः सुपक्वौषधिवीरुधः।
वनाद्रिनद्युदन्वन्तो ह्येधन्ते तव वीक्षितैः॥४०॥

अथ विश्वेश विश्वात्मन्विश्वमूर्ते स्वकेषु मे।
स्नेहपाशमिमं छिन्धि दृढं पाण्डुषु वृष्णिषु॥४१॥

त्वयि मेऽनन्यविषया मतिर्मधुपतेऽसकृत्।
रतिमुद्वहतादद्धा गङ्गेवौघमुदन्वति॥४२॥

श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्ण्यृषभावनिध्रुग्राजन्यवंशदहनानपवर्गवीर्य।
गोविन्द गोद्विजसुरार्तिहरावतार योगेश्वराखिलगुरो भगवन्नमस्ते॥४३॥

॥इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां प्रथमस्कन्धे अष्टमेऽध्याये श्री कुन्तीकृत कृष्णस्तुतिः सम्पूर्णः॥