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माता लक्ष्मी की गति बड़ी रहस्यमय है. एक तो चंचला हैं दूसरे किस पर प्रसन्न होंगी यह उनकी स्वतन्त्रता है. वह पुण्यात्माओं के घर में “श्री” के रूप में अवस्थित रहती हैं. उनका मौलिक स्वरूप आध्यात्मिक है, “श्रीं” उनका बीज है जिसमें हृदय बीज की स्थिति मानी गई है. उनको ‘श्री’ विद्या कहा जाता है. इस बीज को स्वयं लक्ष्मी जी ने ही तारक कहा है अर्थात यह भुक्ति-मुक्ति दोनों प्रदान करने वाला है. यह सभी विद्याओं के केंद्र में हृदयरूप में स्थित है. यह सभी आध्यात्म विद्याओं का हृदय है. इनके बगैर जगत का कोई कारोबार सम्भव नहीं, जगत ही सम्भव नहीं है. “पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धि” पापियों के यहाँ तो कुबुद्धि रूप में रहती हैं, शुद्ध:अंत:करण वाले मनुष्यों के बुद्धिरूप में स्थित हैं. सत्पुरुषों के यहाँ धर्म-ज्ञान-श्रद्धा के रूप में स्थित हैं. कुलीन मनुष्यों में यह लज्जा रूप में स्थित हैं.

धर्म और धन दोनों ही इनसे ही प्राप्त होते हैं. जिन पर ये प्रसन्न होती हैं उनका धर्म कभी शिथिल नहीं होता. यह धर्म को धारण करती हैं. जिन पर ये प्रसन्न होती हैं उनका धन कभी कम नहीं होता. इसप्रकार श्री विद्या, धर्म और धन दोनों ही है जो इन्हें जिस रूप में वरण करता है उन्हें उसी रूप में प्राप्त होती हैं.

शास्त्रों में ऐसा भगवान का वचन है कि जिनके शिर पर लक्ष्मी सवार हो जाती हैं वो धनहीन हो जाता है. जब जम्भासुर के सिर पर लक्ष्मी सवार हुई तो उसका नाश हो गया. लक्ष्मी का चन्द्रमा से गहरा सम्बन्ध है. उनकी लोक में गति मनुष्य की देह में विभिन्न स्थानों में पुण्यानुसार होती है. इन स्थानों में सात स्थान तक देवी ठीक रहती हैं. सातवें स्थान के बाद उसका त्याग कर देती हैं और वे दूसरे को प्राप्त हो जाती हैं.
द्रष्टया वर्द्धथ दैत्यानामेपा लक्ष्मी: शिरोगता ।
सप्तस्थान्यतिक्रान्ता नवमन्यमुपैस्यति ।।

1- जब लक्ष्मी पाँव पर रहती हैं तो घर में धन सम्पत्ति आती है.
2- जब लक्ष्मी कमर पर स्थित होती हैं तो जातक को वस्त्र और आभूषण इत्यादि मिलता है.
3-लक्ष्मी जब गुह्य स्थान में रहती हैं तो पुरुष को स्त्री की प्राप्ति कराती हैं और स्त्री को पुरुष की प्राप्ति कराती हैं.
4- लक्ष्मी जब गोद में होती हैं तो सन्तान की प्राप्ति कराती हैं.
5-लक्ष्मी जब कंठ में स्थित हों तो भाई बन्धु से प्रेम और मिलन कराती हैं.
6- यदि लक्ष्मी मुख पर स्थित हों तो सुंदर वाक्य, लावण्य, सुंदर भोजन इत्यादि देती हैं.
7- लक्ष्मी जब सिर पर जाती हैं तो उसको छोड़ कर दूसरे के घर चली जाती हैं.

जो मनुष्य तमोगुणी है और सत्वगुणी दोनों को लौकिक लक्ष्मी की प्राप्ति नहीं होती. तमोगुणी मनुष्य को न धन की प्राप्ति होती है और धर्म की प्राप्ति होती है. वहीं सत्वगुणी मनुष्य को धर्मधन, विद्या, ज्ञान की प्राप्ति होती है, वह विरज होकर मुक्त होता है. भगवद्गीता में कहा गया है “ऊर्ध्वं गच्छति सात्विका:” सात्विक बुद्धि के मनुष्य उर्ध्व लोकों की प्राप्ति करते हैं. लौकिक लक्ष्मी उन्हें प्राप्त होती हैं जिनमें रजोगुण का उद्रेक है, जैसा की भगवान ने कहा है- मध्ये तिष्ठति राजसिका:. यह लौकिक होते हैं, उनके लिये यह मर्त्यलोक ही सब कुछ होता है. लक्ष्मी इन्हें घोर बंधन में रखती हैं. सप्तशती में कहा गया है “सैषा प्रसन्ना वरदा नृणा भवति मुक्तये ” जिन पर ये अत्यधिक प्रसन्न होती हैं उन्हें मुक्त कर श्रीविद्या प्रदान करती हैं और उसे अपना पुत्र बना लेती हैं. ये पराविद्या हैं.