कृष्ण ने द्रौपदी के बर्तन से साग का टुकड़ा लेकर मुंह मे डाला और मन्त्र बोले । फिर क्या था क्रोध भट्टारक दुर्वासा ऋषि के साथ हजारों शिस्यों का पेट भर गया। कैसे??? क्या रहस्य और विज्ञान था?
महाभारत में ये कथा है जब पांडव पुत्र वन में रह रहे थे तब महर्षि दुर्वासा अपने दस हजार शिष्यों को साथ लेकर पांडवों के पास पहुंचे। दुर्वासा ने दुर्योधन को आशीर्वाद दिया की मुझसे मांगो । दुर्योधन ने उनसे पांडवों के घर भोजन करने भेजा और वह भी ऐसे समय जबकि द्रौपदी समेत सभी पांडव भोजन करने के बाद विश्राम कर रहे थे।
युधिष्ठिर के पास सूर्यदेव से प्राप्त एक ऐसा चमत्कारिक अक्षय पात्र था जिसमें से जितना चाहो भोजन प्राप्त कर सकते थे। लेकिन शर्त यह थी कि उसमें से तभी तक भोजन प्राप्त किया जा सकता था जब तक की द्रौपदी भोजन नहीं कर लेती थी। द्रौपदी के भोजन करने के बाद उस पात्र का उस दिन के लिए कोई महत्व नहीं रहता था। उस वक्त द्रौपदी ने भी भोजन कर लिया था।
इसी समय युधिष्ठिर ने दुर्वासा ऋषि को उनकी शिष्यमंडली सहित भोजन के लिए आमंत्रित कर दिया था। दुर्वासा ऋषि भोजन के पूर्व स्नानादि नित्यकर्म से निवृत्त होने के लिए अपने सभी शिष्यों के साथ गंगातट पर चले गए। इसी बीच द्रौपदी सहित सभी पांडवों को ध्यान आया कि भोजन की व्यवस्था कैसे की जाएगी? किसी ने भी इसका विचार नहीं किया था कि द्रौपदी भोजन कर चुकी है, इसलिये सूर्य के दिए हुए बर्तन से तो उन लोगों के भोजन की व्यवस्था हो नहीं सकती थी।
ऐसे में द्रौपदी बड़ी चिन्ता में पड़ गयी कि यदि ऋषि
दुर्वासा बिना भोजन किए वापस लौट जाते हैं तो वे बिना शाप दिए नहीं मानेंगे। यह सोचकर द्रौपदी मन ही मन भयभीत हो गई। तब उन्होंने अपने सखा श्रीकृष्ण का स्मरण किया और उनसे इस संकट से बचने की प्रार्थना की।
उसने कहा, हे प्रभु आपने जैसे सभा में दु:शासन के अत्याचार से मुझे बचाया था, वैसे ही यहां भी इस महान संकट से तुरंत बचाइए। श्रीकृष्ण ने द्रौपदी की पुकार सुनी और वे तुरंत वहां आ पहुंचे। उन्हें देखकर द्रौपदी के शरीर में मानो प्राण लौट आए। द्रौपदी ने संक्षेप में उन्हें सारी बात सुना दी।
श्रीकृष्ण ने बड़ी अधीरता से कहा- अभी ये सब बात छोड़। पहले मुझे जल्दी से कुछ खाने को दो। मुझे बड़ी भूख लगी है। तुम जानती नहीं हो मैं कितनी दूर से थका हरा आया हूं।’ द्रौपदी ने लज्जा के मारे अपना सिर झुका लिया। उसने रुकते-रुकते कहा- “प्रभो! मैं अभी-अभी खाकर उठी हूं। अब तो उस बर्तन में कुछ भी नहीं बचा है|
श्रीकृष्ण ने कहा- “जरा अपना बर्तन मुझे दिखाओ तो सही।’
द्रौपदी उस बर्तन को ले आई। श्रीकृष्ण उस बर्तन को अपने हाथ में लेकर देखा तो उसके तले में उन्हें साग का पत्ता लगा हुआ मिला। उन्होंने उसी को मुंह में डालकर कहा-
ॐ प्राणाय स्वाहा , ॐ अपानाय स्वाहा , ॐ व्यानाय स्वाहा , ॐ उदानाय स्वाहा , ॐ समानाय स्वाहा |
“इस साग के पत्ते से सम्पूर्ण जगत के आत्मा यज्ञभोक्ता परमेश्वर तृप्त हो जाएं।”
इसके बाद उन्होंने सहदेव से कहा- ‘भैया! अब तुम मुनीश्वरों को भोजन के लिए बुला लाओ। सहदेव ने गंगातट पर जाकर देखा तो वहां उन्हें कोई नहीं मिला।बात यह हुई कि जिस समय श्रीकृष्ण ने साग का पत्ता मुंह में डालकर वह संकल्प किया, उस समय मुनीश्वर लोग जल में खड़े होकर अघमर्षण कर रहे थे। उन्हें अकस्मात ऐसा अनुभव होने लगा मानो उन सबका पेट गले गले तक तक अन्न से भर गया हो। वे सभी एक दूसरे की ओर देखकर कहने लगे, ऐसा लग रहा है कि पेट भरा हुआ है और अब तो खाने की बिल्कुल भी इच्छा नहीं है। अब हम लोग वहां जाकर कैसे खा पाएंगे?
दुर्वासा ऋषि ने भी अपने पेट पर हाथ फेरते हुए डकारने लगे , कहने लगे कि मेरी भी अब जरा भी इच्छा नहीं है भोजन करने की। ऐसे में दुर्वासा ऋषि ने चुपचाप वहां से भाग जाना ही श्रेयस्कर समझा। वे समझ गये कि पांडव भगवद्भक्त हैं और यह सब कृष्ण की ही लीला है ।
उपनिषदों के अनुसार पंच प्राणों को इन मन्त्रो के साथ पांच आहुति देने से वैश्वानर आत्मा तृप्त हो जाती है । जो मनुष्य इन मन्त्रों से पञ्च प्राणों को पांच आहुतियाँ रोज देता है उसके भीतर यह शक्ति होती है की वो अन्न के एक दाने से सम्पूर्ण भूतों को तृप्त कर दे ।

